भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उद्धव ब्रज गए
सच्चिदानंदघन, आनंदकंद, पूर्णकाम, सर्वेश, सर्वमय, समदर्शी, निर्विकार, निर्लेप, निर्गुण–पता नहीं भगवान वृहस्पति आपका वर्णन करते क्या क्या कहते थे और उन सुर गुरु ने ही कहा मुझे-वत्स! इतना सब होकर भी भक्ताधीन, भक्त वत्सल, भक्त दु:ख दु:खी है वह सर्वाधार, सर्वकारणकारण। आप नित्य पूर्ण, नित्य निरीह, मन बुद्धि वाणी से परे अचिन्तय परम प्रकाश, परिपूर्ण परमानंद– किंतु प्रथम मैंने पद वंदन का उपक्रम किया, तभी आपने देखते ही दौड़ कर इन विश्व को अभय देने वाली विशाल भुजाओं में भर लिया था–हृदय से लगा लिया था। आपके वे स्नेह विह्वल वचन- मेरे भाई! मेरे सखा! मैं जैसे जन्म-जन्म का इन चरणों का स्वीकृत सेवक था। मुझमें कुछ अंतर आ गया? कुछ दुराव दीखता है भाई वृहद बल तुमको? श्रीकृष्ण ने हाथ पकड़ लिया उद्धव का। नहीं मेरे स्वामी! किंतु आपकी यह अव्यक्त व्यथा? उद्धव ने कहा–आपको अपनों का तनिक भी क्लेश असह्य है। कौन हैं वे भुवनवन्द्य? ऐसी क्या पीड़ा है उनकी कि आप उसे दूर नहीं कर पाते हैं? कोई उपाय–कोई भी उपाय हो नाथ तो उद्धव प्राण देकर भी उसे करने में अपना सौभाग्य मानेगा। भाई! तुम मेरे अंतरंग सखा हो। श्रीकृष्ण चंद्र के नेत्र झरने लगे। उन्होंने आज अश्रु पोंछने का भी उपक्रम नहीं किया–तुम परम ज्ञानी हो। नीतिज्ञ हो। व्यवहार निपुण हो। तुम्हीं यह कार्य कर सकते हो। तुम कर दो मेरा यह कार्य। उद्धव अंजलि बाँधे हैं। चकित हैं–ऐसा कौन सा कार्य है जिसको कहने में–जिसका आदेश देने में ये मेरे नाथ मुझसे भी इतना संकोच करते हैं। मुझसे भी ये अनुनय क्यों कर रहे हैं आज? तुम व्रज चले जाओ। हमारे बाबा हैं। मेरी मैया है। मेरे गोप हैं। मेरी प्रियतमा गोपियाँ हैं और मेरे बाल सखा। कण्ठ भर-भर आता है। बहुत कठिन हो रहा है बोलना–वे कितने वियोगार्त हैं, मैं भी नहीं बता सकता। उनका प्राण, उनका मन, उनका तन, उनका सर्वस्व मेरा है–मेरे लिए है। वे सबके सब जीवित ही इसलिए हैं कि जीवन उनका अपना नहीं है, मेरा है। श्रीकृष्ण चंद्र बड़ी देर तक बोलने में असमर्थ–भवमग्न बने रहे। उद्धव हाथ जोड़े प्रतीक्षा करते रहे। बड़ी कठिनाई से अपने को सचेत करके वे बोले–तुम देखते ही हो कि मैं मथुरा से जा नहीं सकता हूँ। अब यदि वहाँ जाता हूँ तो मेरे लिए लौटना सम्भव नहीं होगा। मैं यहाँ हूँ किसी प्रकार–वहाँ जाने पर मथुरा मुझे फिर स्मरण भी नहीं आनी है। उद्धव तो भयभीत चकित स्तब्ध रह गए। यदि ऐसा है तो इन कमल लोचन को भूल कर भी व्रज नहीं जाना चाहिए। इनके बिना मथुरा का मथुरा के लोगों का क्या होगा? कैसे रहेंगे बाबा वसुदेव, माता रोहिणी या माता देवकी? महाराज उग्रसेन, हम सब यदुवंश ही इनके बिना कैसे रहेंगे? तुम व्रज चले जाओ! श्रीकृष्ण ने फिर उसी अनुरोध भरे स्वर में कहना प्रारम्भ किया–मेरा संदेश लेकर जाओ। मेरे संदेश से उनकी चिंता दूर करो। तुम तो परम ज्ञानी हो, व्यक्ति के शोक को उसकी स्थिति के अनुसार समझाकर दूर करने में निपुण हो। उन्हें समझाओ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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