भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
शिक्षण-प्रशिक्षण
कौन-सा ऐसा रहस्य है जो इनकी वाणी से छूट गया हो। स्वयं मूल सूत्रकार कदाचित ही इतना स्पष्ट समझा पाते। कोई प्रश्न, कोई सन्देह नहीं रह जाता उस विषय में जिसे इन दो में से किसी भी एक ने एक बार समझा दिया। मध्याह्न सन्ध्या पूर्ण हुई और गुरुदेव ने पुकारा– ‘राम! अपने अनुज के साथ आ जाओ। धनुर्वेद का नूतन पाठ देना हैं तुम्हें।’ गुरुदेव आहार-ग्रहण करने के पश्चात विश्राम भी नहीं करते। वे केवल लेट जाते हैं। राम-कृष्ण उनके चरण दबाते हैं और गुरुदेव का अध्यापन कार्य चलता रहता है। धनुर्वेद के अंग-उपांगों की सैद्धान्तिक बातें वे सुना जाते हैं। राम-श्याम का आग्रह न हो अत्याधिक तो गुरुदेव यह विश्राम भी न करें। सीधे प्रयोग-भूमि पर पहुँच जायें। अन्तत: धनुर्वेद प्रायोगिक विद्या है। राम जब धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर खड़े होते हैं, मूर्तिमान धनुर्वेद भी इतना शौर्यशाली नहीं हो सकता। गुरुदेव को केवल संकेत करना रहता है। राम और कृष्ण के कर तो प्रयोग-सिद्धकर हैं। इनका हस्तलाघव, लक्ष्यवेध, प्रयोग भंगी क्षत्रियकुमार आश्चर्य से देखते रह जाते हैं। अनेक बार आचार्य उमंग में आकर स्वयं धनुष ले लेते हैं और दिव्यास्त्रों का प्रयोग देना आरम्भ कर देते हैं। वर्षों की सेवा, कठोर निष्ठा के पश्चात्, कोई गुरु किसी को गिने-चुने दिव्यास्त्र देता है; किन्तु इन दोनों भाइयों जैसा योग्यतम अधिकारी मिले तो गुरु में विद्या-कार्पण्य रहेगा? आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, पार्वतास्त्र, वारुणास्त्र, सम्मोहनास्त्र की चर्चा व्यर्थ है। गुरुदेव ने तो बिना पूछे, बिना याचना कि इन्हें ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, और नारायणास्त्र तक दे दिये। लोग कहते हैं– ‘वितस्ति बाणों का सन्धान कर सकें, विश्व में ऐसे दो-चार ही शूर हो सकते हैं।’ बात ठीक है। ये छोटे-बाण धनुष की ज्या पर लगकर धनुर्दण्ड तक तो पहुँचते नहीं। बिना आधार के इनका कोई लक्ष्य पर कैसे स्थिर करे; किन्तु उस दिन जब गुरुदेव ने इन्हें ये नन्हें बाण दिये, लगा दोनों भाई इनसे खेलने के सदा से अभ्यस्त हैं। दोनों ने पृथक-पृथक धनुष लिये और दो दिशाओं में वितस्ति बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी। आनन्द, आशंका, आश्चर्य–तृतीय प्रहर इन सब का सामंजस्य ही है। सांयकाल की सन्ध्या तनिक विश्राम देती है। रात्रि के प्रथम प्रहर में गुरुदेव कला-प्रशिक्षण प्रारम्भ करते हैं। एक दिन एक कला अपने भेदोपभेदों के साथ साँगपूर्ण हो जाती है। जबकि कहा जाता है–एक कला के लिए सहस्त्रवर्ष का सम्पूर्ण जीवन भी थोड़ा होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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