भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
उपनयन
सृष्टिकर्ता ने उसे पता नहीं किस कर्म का यह दण्ड दिया। इतना निष्ठुर कार्य–लेकिन नापित को करना तो पड़ा। पता नहीं कैसे कर सका वह। राम-श्याम ही अनुरोध करने लगे। ‘छुद्र नापित के सम्मुख भगवान वासुदेव स्वयं आ बैठे हैं और उससे अनुरोध कर रहे हैं। इनका आदेश टाल देने की शक्ति तो सृष्टिकर्ता में भी नहीं होगी।’ प्राण उन्मत्त हो जाते हैं। शरीर का पता नहीं; किन्तु करों में कम्पन तो नहीं ही आना चाहिये। ये नवनीत सुकुमार सम्मुख बैठे हैं। किसी प्रकार नापित को अपना कर्तव्य पूरा करना पड़ा और फिर वह वहीं उन्मादग्रस्त के समान अपने शस्त्र को तोड़ने लगा। अब वह यह कर्म नहीं करेगा। जिने करों से राम-श्याम की अलकें उतारी हैं, वे कर अब और किसी का शरीर स्पर्श नहीं करेंगे। नापित का कार्य सदा के लिए त्यागा उसने। भगवान् वासुदेव के उत्तमांग का स्पर्श करने वाले कर अब क्या किसी अन्य की सेवा करेंगे? अब उसे किसी की सेवा की आवश्यकता भी क्या। उसे जो न्योछावर मिली है, उसे देखकर धनाधीश कुबेर भी चकित ही रह सकते हैं; किन्तु इन चमकते पत्थरों का मूल्य कहाँ है नापित की दृष्टि में। उसके अन्तर में इन गौर-श्याम ने जो आनन्द की राशि उड़ेल दी है–कल्प-कल्प की तपस्या, युग-युग के साधनों से महर्षिगणों के मानस उसकी छाया भी कदाचित ही पाते हैं। वह कहाँ रहा अब नापित। वह गदगद कण्ठ, पुलकित तन, अश्रु, नयन–वह तो परमहँसों की सहज स्थिति को प्राप्त हो गया। केशरपीत मुण्डित मस्तक के मध्य गोखुर दीर्घ शिखा, दिगम्बर वेश–बलराम-श्रीकृष्ण स्नान करके आचार्य के दाहिने अग्नि के सम्मुख पूर्वाभिमुख आ बैठे हैं। अग्रज की ओर देखकर श्रीकृष्ण मुस्करा रहे हैं। दिशाएं और गगन वाद्यों के मंगल स्वर से गूँजने लगे। विप्रों ने मन्त्रपाठ, नारियों ने मंगलगान, वन्दियों ने स्तवन प्रारम्भ किया था; किन्तु एक साथ सब रुक गये। अत्यन्त नीरवता-सर्वथा शान्ति। महर्षि ने गदगद स्वर में संकल्प पढ़ा। यजमानों की कुल परम्परा में प्राप्त राम-कृष्ण को वे अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। ब्रह्मा का वरण हुआ, ब्रह्मोपवेशन हुआ और महर्षि स्त्रुवा से अग्नि में धारावद्ध, स्तम्भाकार आज्याहुति दी। ‘ब्रह्मचर्यमार्ग:।’ महर्षि ने आदेश वाक्य दुहराने प्रारम्भ किये। अत्यन्त श्रद्धा, नम्रता से दोनों भाई उनको स्वीकार करके बोलते जा रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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