भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
ब्रजराज विदा हुए
‘आप व्रज पधारें।’ कृष्णचन्द्र ने अपने पटुके से बाबा के अश्रु पोंछे– ‘हम दोनों अपने स्नेहकातर व्रज के स्वजनों को देखने, अपने जाति-बान्धवों से मिलने वहाँ शीघ्र आवेंगे। केवल कुछ दिन यहाँ के दु:खी लोगों की व्यवस्था मुझे और कर लेने दें। हम दोनों भाई शीघ्र आवेंगे।’ यही आश्वासन, यही वाणी व्रजवासियों के जीव का आधार बनी। इसी शब्द-सूत्र के सहारे व्रज के लोग लौटे और जीवित रहे। श्रीकृष्ण ने एक-एक गोप, एक-एक गोपकुमार के अश्रु पोंछे। दाऊ एक-एक से भुजा फैलाकर मिले।’ उपहार–महाराज उग्रसेन ने राजकीय उपहार सीधे व्रज भेज दिया। वसुदेव जी के, देवकी जी के, वसुदेव जी की पत्नियों के उपहार भी इतने हैं कि उनकी गणना नहीं की जा सकी। वे उपहार भी व्रज भेज दिये गये। भले व्रज में उनका उपयोग कोई करे तो स्नेह, आदर के कारण ही करेगा। उपहार हैं राम-श्याम के अब। इनके उपहारों को कोई कैसे अस्वीकार कर देगा– ‘ये हमारी प्रसन्नता के लिए।’ बाबा को, गोपों को, गोपकुमारों को अपने करों से इन्होंने उत्तरीय, उष्णीष, आभरणों से भूषित किया। मैया के लिए ही नहीं, एक-एक सेवक-सेविका के लिए भी इनके उपहार हैं और इन्होंने तो गायों, वृषभों, बछड़ों तक की, पाले पक्षियों की, तरुपुष्पों की, बावलियों तक की, सुधि लेने–सम्हाल रखने को कहा है। सबका स्मरण किया–सब कुंजों-तरुओं-लताओं तक का। महाराज उग्रसेन तथा नगरवासियों को अनुरोध करके श्रीकृष्णचन्द्र ने ही थोड़ी दूर से लौटा दिया। महाराज व्रजपति से मिलकर किसी प्रकार लौटे श्रीकृष्ण ने सबको ऐसे लौटाया जैसे वे बड़े भाई के साथ स्वयं व्रज जा रहे हों। ‘अब आपको भी लौटना चाहिये।’ श्रीनन्दराय ने वासुदेव जी को अंकमाल दी। पता नहीं, क्या–क्या कहना है; किन्तु न कण्ठ साथ देता है, न स्मृति। कठिनाई से कह सकें- ‘आपका यह कृष्णचन्द्र बहुत संकोची है। इसे कष्ट न हो।’ उस मिलन का वर्णन संभव नहीं है। वसुदेव जी ने गोपों को अंकमाल दी। गोपकुमारों को हृदय से लगाया। फिर मिले व्रजराज से और खड़े रह गये। राम-श्याम? लेकिन राम-श्याम को विदा करके क्या ब्रज लौटा जा सकता है? जो भगवान वासुदेव हैं, संकर्षण हैं, उन्हें मथुरा लौटना ही था; किन्तु गोपों को, गोपकुमारों को, व्रजपति को लगता है कि उनके दाऊ-कन्हाई तो उनके साथ ही हैं। वे कहीं से वन से आये और उनके छकड़ों पर बैठ गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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