भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अवतार तत्त्व
पार्थिव देह आठ कला से अधिक का प्राकट्य सह नहीं सकता। वैसे आठ कला के प्राकट्य से ही पार्थिवदेह में दिव्यता आ जाती है और नौ कला का विकास कारक पुरुषों में होता है। सप्तर्षिगण, मनु, मनुपुत्र, अधिदेवता वर्ग, प्रजापतिगण, लोकपाल प्रभृति या कल्पस्थायी दिव्यदेह, सामान्य पार्थिवदेह से पार्थक्य रखते हैं। धर्म, तप, योग की शक्ति अनन्त है और ऐसा कोई नियम नहीं है कि सकाम या तामस प्रकृति व्यक्ति काल-विशेष में धर्माचरण, तप या योग नहीं कर सकेगा। फलत: सृष्टि में बार-बार यह होता है कि असुर तप से अतिशय शक्ति सम्पन्न हो जाते हैं, अथवा कोई मानव तप में, धर्म में, आराधना में लग जाता है और अपनी रक्षा से भी उदासीन हो जाता है अथवा कोई विशुद्ध तत्व भाग्यवान परमतत्त्व के प्रत्यक्ष साकार दर्शन का आग्रह कर लेता है। सृष्टि का मर्यादा का अतिशय अतिक्रमण होने लगे तो व्यवस्था की स्थापना के लिए, किसी धर्मात्मा, तपस्वी पर संकट आया हो और उसके निवारण का अन्य मार्ग न हो तो रक्षण के लिए और भक्ति प्राणजनों की भावना को सार्थक करने के लिए अवतार होता है। अनेक बार ऐसा होता है कि तप अथवा वरदान के प्रभाव से कोई असुर देव-शक्ति के लिए अदम्य हो जाता है। जब भौतिक एवं आधिदैवत शक्तियाँ असमर्थ हो जायें, सृष्टि की रक्षा का जिन पर दायित्व है, उन भगवान विष्णु को अवतार लेना पड़ता है। जब कोई भावप्राण हठ कर लेता है - ‘मुझे तो सर्वेश्वर को पुत्र, पिता, सखा या पति बनाना है और यहीं इसी जगती में बनाना है’ - सर्वेश्वर के पास यहाँ आने के अतिरिक्त और क्या उपाय रह जाता है? भक्ति का प्रेम के पाश का बन्धन उन सर्वशक्तिमान के लिए उपेक्षणीय नहीं है। धरा एक साथ ऐसे बहुत अधिक भक्तों के पावन-पदों से कृतार्थ होती है। एक ही प्रेमी-प्राण पुकारे तो जो दौड़ा आने को विवश हो जाता है, उसका आविर्भाव रुक कैसे सकता है जब धरा पर एक साथ भक्तों का समुदाय ही कभी आविर्भूत हो जाय। आकस्मिक अवसरों पर प्राय: दस या ग्यारह कला का आविर्भाव होता है। ऐसे अवतार सहसा प्रकट हो जाते हैं और जिस कार्य के लिए प्रकट हुए- उसको सम्पन्न करके तिरोहित हो जाते हैं। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंहादि तथा भक्तों को दर्शन देने के लिए प्रकट रूप ऐसे ही होते हैं। नौ कला का विकास ही दिव्य देह में हो पाता है और दस या ग्यारह कला जहाँ प्रकट हो, वहाँ तो पंचभूत का लेश भी नहीं रह जाता। वहाँ सूक्ष्म-स्थूल देह का भेद नहीं होता। वह चिन्मय वपु होता है, अत: उसका आकार चाहे जब जैसा बदल सकता है। जैसे भगवान वामन विराट हो गये। इन दिव्य देहों में वस्त्राभरण, आयुधादि भी दिव्य होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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