भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
वैर–बीज
‘श्रीकृष्ण समस्त विश्व को उत्पन्न करने वाले और नष्ट करने वाले हैं, यह कितनों ने समझाया था आपको। उन सर्व समर्थ–सबके पालक के शत्रु बन गये आप। किसी की बात आपने नहीं सुनी।’ ये अबोध नारियाँ प्रात: भली प्रकारी श्रृंगार करके यवनिका के पीछे बैठकर मल्लक्रीड़ा देखने आयी थीं। उन्हें क्या पता था कि भाग्य आज उन्हें क्या दिखाने वाला है। सहसा श्रीकृष्णचन्द्र समीप आ गये। वही समीप आ सकते थे। महाराजा उग्रसेन, वसुदेव जी–किसी को भी इस अस्त–व्यस्त दशा में उनके पास नहीं आना चाहिये था। कमल-लोचन करुणा से भरे, संकुचित होते, अपराधी-से बने श्रीकृष्णचन्द्र आये समीप। ‘आप सब राजकन्यायें हैं। राजवधुएं हैं। बुद्धिमती हैं। आप जानती हैं कि जीवन और मृत्यु पूर्व निश्चित है। जिसका शरीर जब जाना है, जैसे जाना है, उसी समय और वैसे ही जायेगा। इसे कोई टाल या परिवर्तित नहीं कर सकता। अत: इसके लिए शोक करना उचित नहीं है। आप सब मुझे क्षमा करें।’ त्रिभुवन सुन्दर अंजलि बाँधे,पद्मपलाश दृगों में अश्रु भरे सम्मुख खड़े हैं। उनके श्रीमुख पर दृष्टि गयी और नारियाँ इस असह्य व्यथा के क्षण में भी उन्हें देखती रह गयीं। उनके सिर और वक्ष पीटते कर रुक गये। उनका क्रन्दन सिसकियों में बदल गया। वे अपने वस्त्र सम्हालने लगीं। ‘अब आप सब पधारें। अनुमति दें कि सम्पूर्ण सम्मान सहित हम इन देहों का अन्तिम संस्कार सम्पन्न करें।’ कृष्णचन्द्र ने अंजलि बाँधकर फिर कहा– ‘आपने यदि मुझे क्षमा कर दिया है तो मुझे सेवा करने का अवसर भी आप देने की कृपा करें।’ माता देवकी, वसुदेव जी की दूसरी पत्नियाँ दूसरे मंचों से उतरकर समीप आ गयीं। उन्होंने उन सिसकती विधवाओं को सम्हाल लिया। स्नेहपूर्वक उन्हें लेकर यमुना स्नान कराने चली गयीं। श्रीबलराम और श्रीकृष्णचन्द्र व्यस्त हो गये। वसुदेव जी, महाराज उग्रसेन, व्रजराज नन्द गोपों के साथ-साथ आ गये और सब व्यवस्था करने में लग गये। ‘धन्य है कंस और धन्य हैं उसके भाई!’ नागरिक इस सौभाग्य की कल्पना नहीं करते थे– ‘इनके शवों को अग्रज के साथ भगवान वासुदेव ने कन्धा दिया! तपस्वियों, ऋषियों, बड़े-बड़े पुण्यात्माओं के लिए भी यह परम सौभाग्य अप्राप्य है।’ कौशेय वस्त्रों में आच्छादित शव। अर्थी सबकी सब भली प्रकार सजायी गयी थीं; किन्तु कंस के शव को सम्राट के शव के समान सजाया गया था। उसके भाइयों के शव उसके पीछे थे। जीवन भर अनुगत रहे वे और इस महायात्रा में भी वे बड़े भाई के अनुगत ही थे। दोनों ओर पंक्तिबद्ध सैनिक खड़े थे। जीवन में जिसने ब्राह्मणों का सम्मान नहीं किया, उसके सब अपराध भूलकर ब्राह्मण पथ के दोनों ओर खड़े उस पर पुष्प डाल रहे थे। यह श्रीकृष्ण के साथ रहने का प्रत्यक्ष परिणाम था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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