भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कंसारि
श्रीकृष्ण ने बाँये हाथ से झपटकर उसका मुकुट फेंक दिया। झनझनाता मथुरा का असुर-मुकुट मल्लों के शवों के समीप आ गिरा। दाहिने हाथ से कंस के केश पकड़कर उसे मंच से नीचे फेंका श्रीकृष्ण ने, और स्वयं उसकी पीठ पर कूद गये। मुख से रक्त फेंक दिया कंस ने। उसकी छाती की हड्डियाँ चूर-चूर हो गयीं। वह बिना चीत्कार किये मर गया। क्रोध - असह्य क्रोध आया है कृष्ण को। पता नहीं, कब का क्रोध है। उनका मुख लाल-लाल हो रहा है। उनके मुख की ओर देखना इस समय असम्भव है। ‘इसने माता का केश खींचा था?’ कृष्ण केश पकड़कर कंस के प्राणहीन शव का मल्लभूमि में घसीट रहे हैं। इतने क्रोध में घसीट रहे हैं कि सहम कर सखा तक मल्लभूमि से बाहर एक ओर जा खड़े हुए हैं। कंस के नेत्र बाहर को निकले पड़े हैं। जीभ मुख से निकली है। रक्त की धारा चल रही है मुख से। धूलि में–रक्त से कीचड़ बनी धूलि में भुवन को आतंकित करने वाले कंस का शव सम्पूर्ण मथुरा के नागरिकों के सम्मुख केश पकड़कर घसीटा जा रहा है। जैसे महामत्त गज को मारकर सिंह लथेड़ता है, कृष्ण उस शव को लथेड़ रहे हैं। कृष्ण रुष्ट हैं। इनके ओष्ठ फड़क रहे हैं। भौंहे चढ़ी हैं। कोई समीप आने का साहस नहीं करता; किन्तु लोग ‘हाय! हाय!’ करने लगे हैं। कंस तो मर गया। अब भला शव की दुर्गति क्यों? अन्तत: राजा का शव है। कर लो शव की दुर्गति! कंस का अब क्या बनता-बिगड़ता है। यह शव है–कोई इस पर पुष्प चढ़ावे या इसे लात मारे। जो जिसके जी में आये, इसका कर लो। कंस तो असुर होकर भी भाग्यवान रहा। भय से, शत्रुता से सही, इन नवनीरद-सुन्दर चिदघनवपु का ही स्मरण रात-दिन करता था वह। सोते-जागते, उठते-बैठते, खाते-पीते उसे एक ही धुन थी– ‘कृष्ण आया।’ प्रत्येक समय श्याम का–चिन्तन करते रहे उसके प्राण। इन श्यामघन को देखते, इनके द्वारा मारा गया। वह तो इनके सारूप्य को प्राप्त हो गया। चिन्मय मेघश्याम दिव्य देह मिला उसे। अब इस कुत्सित पार्थिव शव से उसका क्या सम्बन्ध। इसका क्या मोह उसे। कंस के भाई नहीं सह सके। उसके आठों भाई झपटे एक साथ दाँत पीसते शस्त्र उठाये, चिल्लाते हुए। कंक, न्यग्रोध, सुनामा, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान -ये उग्रसेन के आठों पुत्र श्रीकृष्ण के ऊपर एक साथ टूटे। इनके साथ ही कंस के मन्त्री पीठ, पैठिक, असिलोमादि ने भी शस्त्र उठाये और अपने मंचों से कूदे। श्रीबलराम ने इनको दौड़ते देखा तो वहाँ पहले का फेंका गजदन्त उठा लिया। वन में जब क्रुद्ध वनराज मृगों के यूथ पर कूदता है- क्षण लगते हैं मृगों के शव गिरने में? श्रीसंकर्षण के हाथ का गजदन्त–जिस पर एक बार पड़ा, उसके मुख से आह भी नहीं निकल सकी। केवल शव-कुचले, फटे भग्नशिर शव दिखे सबको उन झपटने वालों के। ‘छि:! क्या करता है तू?’ भद्र ने झिड़का। कृष्ण ने सखा की ओर देखा और संकुचित होकर शव का केश छोड़ दिया। श्रीबलराम ने भी रक्त टपकता गजदन्त फेंक दिया। गगन और सभा-भवन गूँजा– ‘भगवान वासुदेव की जय।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज