भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
मल्ल-युद्ध
राजा के सेवक के मुख से जैसी स्तुति सुनी जा सकती है, चाणूर उसके अनुरूप ही बोला था। श्रीकृष्णचन्द्र ने गोपकुमारों की ओर देखा। सजी हुई मल्लभूमि की ओर देखा– ‘बहुत कोमल मृत्तिका है, सुगन्धित है। है तो यह मल्लक्रीड़ा के ही उपयुक्त।’ ‘तुम लोग भोजपति की प्रजा हो और हम वनवासी हैं।’ श्याम ने संकेत कर दिया कि गोप पराधीन प्रजा नहीं हैं; वे स्वतन्त्र काननवासी हैं– ‘महाराज का अनुग्रह है कि उन्होंने हमको अपना प्रिय कार्य करने का सुयोग दिया। लेकिन तुम लोग मल्लसभा के सभासद हो, इसके नियमों को जानते ही हो। मल्लयुद्ध में कोई अधर्म नहीं होना चाहिये। हम बालक हैं, अपने समान बलवाले बालकों से भली प्रकार मल्लक्रीड़ा करेंगे।’ ‘तुम दोनों बालक हो?’ अट्टहास करके चाणूर हँसा– ‘कोई इस बात पर विश्वास करेगा कि तुम बालक या किशोर हो? सहस्त्र गजबल वाले कुवलयापीड को तुमने अभी-अभी मार दिया, अत: तुम दोनों तो बलवानों में श्रेष्ठ हो। अब टालो मत! मेरे साथ तुम्हें स्वच्छन्द मल्लयुद्ध करना है और बलराम के साथ मुष्टिक लड़ेगा।’ चाणूर ने थाप दी जंघा पर और पीछे मुड़कर देखा। मुष्टिक ने भी बढ़कर थाप दी और दोनों ने दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया। ऐसी चुनौती सह लेना न श्याम के स्वभाव में है, न राम के स्वभाव में। दोनों भाइयों ने गजदन्त वहीं फेंक दिये। दो में एक ने भी ध्यान नहीं दिया कि मल्ल लंगोट बांधे हैं और ये कछनी में हैं। केवल वनमाला उतार दी दोनों भाइयों ने और अखाड़े में उतर गये। मल्लों का हाथ पकड़ा इन्होंने और दोनों मल्लों को लगा कि ऐसे वज्र कर का स्पर्श उन्हें प्रथम बार प्राप्त हुआ है। गोपकुमार वहीं खड़े रह गये। राजसेवकों के कहने पर मल्लभूमि के समीप ही बैठ गये। उनके सखा मल्लयुद्ध कर रहे हैं–वे दूर कैसे जा सकते हैं। उनके वहीं रहने पर न मल्लों को आपत्ति हुई, न महाराज कंस को ही। ‘हाथों से हाथ, पैरों से पैर, जांघों से जांघे, घुटनों से घुटने, मस्तक से मस्तक, छातियों से छातियां रगड़ उठीं–मल्लयुद्ध चलने लगा है। कंस उझककर देख रहा है। सबकी दृष्टि, सबके मन-प्राण मानों नेत्रों में आ गये हैं।’ ‘कृष्ण! तुम्हें इस मल्ल-दानव पर विजय मिले।’ आकाश में से सप्तर्षियों का स्पष्ट आशीर्वाद सुनायी पड़ा। ‘तो यह दानव है।’ सखाओं ने परस्पर देखा और सन्तुष्ट हो गये– ‘दानव भी तो राक्षसों के भाई ही होते हैं। तभी ये पर्वताकार भयानक रूप वाले हैं; किन्तु दानव हैं तो भय की कोई बात नहीं है। राक्षसों में बल ही कितना होता है। ये उछलेंगे, कूदेंगे, कदाचित गुर्रायेंगे भी; किन्तु मर जायेंगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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