भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धनुर्भंग
‘इन्होंने स्पर्श भी कर दिया तो धनुष पवित्र हो जायेगा। फिर पता नहीं क्या होगा उसका। अन्तत: शिव-धनुष है। जड़ द्रव्य तो नहीं है।’ एक वृद्ध विप्र ने समीप के व्यक्ति से कहा। ‘इन्हें धनुष तक प्रहरी जाने देंगे?’ उस दूसरे ने सन्देह किया। ‘वे इन्हें रोक सकेंगे?’ वृद्ध हँसे– ‘ये कुछ करना चाहेंगे तो कोई रोक पावेगा इनको?’ नागरिकों में अनेक प्रकार की चर्चा चल पड़ी थी। श्रीराम-श्याम सखाओं के साथ बाल-गजराज के समान झूमते-घूमते बढ़े जा रहे थे। धनुष जिस विशाल भवन के प्रांगण में स्वर्ण-वेदिका पर रखा था, उसका दुर्ग के समान उच्च, विस्तृत, सुसज्जित द्वार आ गया सम्मुख। ‘वह रहा धनुष!’ सुबल ने संकेत किया। इन्द्रधनुष के समान अनेक रंगों से मण्डित, रत्नखचित, अकल्पनीय विशाल धनुष। पुष्पमाल्य, ढेरों सुमन, चन्दन, कुंकुम आदि से पूजा हुई थी धनुष की। ‘अपने गिरिराज से भारी नहीं है।’ नन्हा तोक उछला; किन्तु भद्र ने इस छोटे भाई को सम्हाल लिया। गोपकुमारों को भद्र की चेतावनी स्मरण है। नागरिक द्वार पर से ही धनुष को अंजलि बांधकर प्रणाम करने के अभ्यासी है। प्रहरियों ने समझा-ये ग्रामीण बालक आये हैं, यहाँ की मर्यादा-सीमा का इन्हें पता नहीं है। ये थोड़ा भीतर आकर धनुष देखना चाहते हैं तो देख लें। कितने सुन्दर बालक हैं।,प्रहरी सावधान हों, रोकें, इससे पहले ही कृष्णचन्द्र लगभग दौड़कर धनुष के समीप वेदिका पर जा चढ़े। ‘दूर! दूर रहो। हटो!’ प्रहरी पुकारते बढ़े– ‘स्पर्श मत करना।’ किन्तु इतनी देर में तो कृष्ण ने धनुष उठा लिया। वेदिका पर उसकी एक नोंंक टिकाकर, उसे झुकाया। दक्षिण कलाई में लपेटकर ज्या धनुष पर चढ़ा दी और वामहस्त से धनुष काे उठाकर उसकी ज्या दक्षिण हस्त से खींचने लगे–खींचते ही चले गये। लिखने में–कहने में बहुत देर लगती है। प्रहरी उस प्रांगण में ही थे–विशाल प्रांगण सही; किन्तु सशस्त्र थे, सावधान थे और कृष्णचन्द्र के वेदिका पर चढ़ते-चढ़ते दौड़ पड़े थे; किन्तु वे आधे प्रांगण भी नहीं पहुँचे थे कि श्रीकृष्ण के करों में धनुष मण्डलाकार हुआ और भयानक शब्द के साथ जैसे सैकड़ों वज्रपात एक साथ हुए हों, टूट गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज