भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुब्जा सुन्दरी
‘वीर! तुम अब यहाँ इस प्रकार क्यों खड़े हो?’ कुब्जा ने उत्तरीय पकड़ लिया श्यामसुन्दर का– ‘प्यारे! आओ! हम घर चलें। मैं तुमको छोड़कर नहीं जा सकती। पुरुषर्षभ! मेरा चित तुम्हारे लिए मथित हो रहा है। मुझ पर कृपा करो। आओ–घर चलो।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने अग्रज की ओर देखा। सखाओं की ओर देखा और खुलकर हँस पड़े। हँसते हुए बोले– ‘सुन्दरी! तुम इतनी शीघ्रता मत करो। बहुत अच्छी हो तुम। बहुत अतिथि-वत्सला हो। हम पथिकों पर तुम्हारा अपार अनुराग है। तुम अपने घर लौटो। मैं तुम्हारे यहाँ आऊँगा। अवश्य आऊँगा तुम्हारे घर।’ ‘अवश्य आऊँगा तुम्हारे घर!’ कुब्जा के लिए इतना सुनना–इतना वचन पर्याप्त था। वह दासी है–इनके चरणों की दासी है अब तो। उसे आज्ञा पालन करना चाहिये। वह हठ करे तो ये रूठ सकते हैं। वह हठ नहीं करेगी–आज्ञा पालन करेगी। आज्ञा पालन ही उसका कर्तव्य है। कुब्जा-नहीं, सैरन्ध्री सुन्दरी लौट गयी वहीं से। लेकिन गृहों के गवाक्षों में जो पुर-रमणियाँ नेत्र लगाये थीं–उनकी क्या अवस्था हुई? कुब्जा दासी थी–उसे इन त्रैलोक्य विमोहन का इतना सामीप्य–इनका स्पर्श मिला; किन्तु वे कुल-ललनायें हैं, मार्ग पर वे कैसे निकल सकती हैं। दुरन्त लज्जा से वे मूर्च्छितप्राय: हो गयीं। उनका रुदन बहुत रोकने पर भी सिसकियाँ बनने से रुक नहीं सका। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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