भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
कुब्जा सुन्दरी
‘कंस के रंगे वस्त्र ले लिये और अब उसके लिए जाता अंगराग भी।’ नागरिकों को आश्चर्य नहीं हुआ, अच्छा लगा। कुब्जा आगे बढ़ी तो अग्रज की ओर संकेत कर दिया कन्हाई ने। सम्पूर्ण शरीर तो वस्त्रों से ढका है। उस पर मालायें लहरा रही हैं। केवल भाल और कपोल मण्डित करने हैं कुब्जा को; किन्तु कुब्जा के करों में सचमुच कला है। कपोलों पर पत्रावली, भाल पर अदभुत खौर वह कितनी त्वरा से बना देती है। श्रीबलराम जी के भाल-कपोल को श्वेत चन्दन, कस्तूरी एवं कुंकुम बिन्दुओं से भूषित किया कुब्जा ने और श्यामसुन्दर के कपोल केशर मिश्रित चन्दन, कुंकुम बिन्दुओं से भूषित हो गये। तनिक-सी देर में तो वह सब गोपकुमारों को अलंकृत करके श्रीकष्णचन्द्र के सम्मुख आ खड़ी हुई। ‘तुम चंचल मत होना।’ कृष्णचन्द्र ने कहा और कुब्जा कुछ समझे इससे पहिले आगे बढ़कर अपने चरणाग्र उसके पैरों पर रखकर पैर दबा लिये उसके। दक्षिण कर की मध्यमा और अनामिक उसकी ठुड्डी में लगायी और एक हल्का-सा झटका, एक कड़कने का शब्द हुआ–बस। कहाँ गया कुब्जा का कूबड़? वह तो सीधी खड़ी हो गयी। ऐसी सीधी कि मानो कभी कूबड़ी थी ही नहीं। प्रसन्न होकर गोपकुमारों ने तालियाँ बजायीं। ‘तुम्हारा अविलम्ब कल्याण होगा।’ नागरिकों का ध्यान इन शब्दों पर अब गया। कुब्जा केवल सीधी ही तो नहीं हुई है! उस पर तो सौन्दर्य की घटा बरस गयी है। इतना रूप! इतना सौकुमार्य! स्वर्ग की कोई देवी जैसे मथुरा के राजपथ पर उतर आयी हो। नागरिकों के कण्ठ से अकस्मात निकला– ‘भगवान वासुदेव की जय।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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