भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
धन्य माली सुदामा
‘अदभुत माल्य-ग्रन्थन कला; किन्तु अदभुत आग्रही भी था सुदामा’ एक वृद्ध कह रहे थे– ‘उसके लिए मूल्य का कोई महत्व कभी नहीं था। माला या स्तबक लेने जाओ तो पहला प्रश्न– ‘क्यों चाहिये आपको यह?’ ‘दूसरों की बात तो छोड़ दो, सुदामा की माला महारानी को भी श्रृंगार के लिए अप्राप्य थी।’ बड़ी श्रद्धा से एक ने कहा– ‘स्वयं महाराज उग्रसेन सम्मान करते थे सुदामा की कला और भावना का। वह केवल भगवत्पूजन हो या यज्ञ में आवश्यक हो, तभी माल्य-प्रदान करता था। देवप्रतिमा के श्रृंगार की अत्यावश्यक सामग्री थी सुदामा द्वारा ग्रथित माला और भगवान नारायण के वक्ष को इसी की गूंथी वनमाला सदा भूषित करती थी। सुदामा स्वयं दे आता था मन्दिर में नित्य।’ ‘किसने क्या दिया या देगा, न सुदामा ने कभी पूछा-न देखा; किन्तु कौन उसकी माला का क्या करेगा, इस विषय में सदा सतर्क रहा है यह माली।’ एक विप्र बोल रहे थे– ‘जब से कंस सिंहासन पर आया,इसने सुमनों से सन्यास प्राय: ले लिया है। बहाना बना दिया इसने–शरीर बहुत वृद्ध हो गया। अंगुलियाँ अब ठीक काम नहीं करतीं। वैस पुष्प तो इसे सगे-पुत्र जैसे लगते हैं। दिन भर अब भी अपनी वाटिकाओं में वीरुधों, लताओं को सींचने, निराने, संवारने में लगा रहता है।’ ‘अच्छा तो यह निष्ठा है जो भगवान वासुदेव को यहाँ खींच लायी है।’ एक तरुण ने कहा– ‘सुदामा जब सदा से उनका जन है, उनके लिए ही माल्य-ग्रन्थन में लगा रहा है तो उसका गृह इनके लिए अपरिचित कैसे रह सकता था। मथुरा में इनके श्रीचरण इस भवन में सर्वप्रथम आने ही चाहिये। धन्य मालाकार सुदामा।’ भवन में भीतर सुदामा की विचित्र दशा थी। उसने कल सुना था–अक्रूरजी व्रज गये हैं वसुदेव जी के पुत्रों को ले आने।’ ‘मेरे स्वामी! मेरे आराध्य कल आवेंगे।’ सुदामा को तो कभी सन्देह नहीं हुआ कि वे परमपुरुष हैं या नहीं। उसके प्राण तो उन्हीं का मार्ग देख रहे हैं। कल दिन भर वह अपनी वाटिकाओं को सींचता रहा। वीरुधों में पता नहीं क्या-क्या मसाला डालता रहा। पुष्पों को बड़ा बनाने, शीघ्र खिलाने के असंख्य प्रयोग जानता है वह और कल पूरा दिन यही सब करता रहा। रात्रि में सुदामा सोया कहां? उसकी दीर्घकाल से परित्यक्ता सूचियां, सूत्र आदि–सबको स्वच्छ किया उसने और फिर पूरे गृह को स्वच्छ करने में लग गया। उसने भवन का कोना-कोना स्वच्छ कर डाला और रात्रि में ही सजा डाला। उसे क्षण भर को भी विश्राम नहीं था– ‘मेरे स्वामी कल यहाँ पधारेंगे।’ कल सांय ही वह नगर के बाजार में देखा गया था वर्षों के पश्चात। उसने नवीन सूत्र लिये अनेक रंगों के। सूचियाँ लीं। ढेरों फल, कन्द, मेवे लिये और टोकरी भरकर स्वयं सिर पर उठाये लाया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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