भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
राम-श्याम आये
बालक घरों को दौड़ जाते थे और थोड़ी देर में फिर लौट आते थे; बालकों को दूरी, थकावट आदि का कहाँ पता लगता है। वे आम्रोपवन के आसपास ही घिरे रहे। ‘वे आ रहे हैं। नगर में आ रहे हैं।’ बालक दौड़े अपने-अपने घरों को। ‘उनके साथ उनके सब मित्र नगर देखने आ रहे हैं।’ भोजन करके थोड़ा ही विश्राम किया राम-श्याम ने। शीतकाल के दिन होते ही कितने बड़े हैं। मध्याह्न बीत ही चुका था। दिन का तीसरा प्रहर भी बीतने ही वाला था। दोनों भाइयों ने बाबा से अनुमति ली– ‘हम लोग नगर देख आवें?’ ‘तुम्हारे साथ किसी वयोवृद्ध गोप को कर देते हैं।’ बाबा ने कहा– ‘अथवा मैं चलता हूँ।’ ‘बाबा, हम सब शीघ्र आ जायेंगे। दाऊ दादा तो साथ ही हैं।’ श्यामसुन्दर ने किसी भी बड़े गोप को साथ लेने में अनिच्छा प्रदर्शित की। ‘बालकों को घूम आने दो।’ सन्नन्दजी ने कहा– ‘इन्हें संकोच होगा हममें से किसी के जाने से। वैसे भी मथुरा इनके लिए अपरिचित है। नगर में ये संकोची बालक किसी से बोल नहीं सकते। अपने-आप घूम-घामकर लौट आवेंगे।’ ‘किसी की कोई वस्तु छूना मत। कोई कुछ दे तो भी मत लेना।’ बाबा ने समझाया– ‘किसी भवन या दुकान में मत घुसना। स्थान-स्थान पर विशेष प्रकार के वस्त्र पहने राजसेवक मिलेंगे। उनमें कोई कुछ कहे तो मान लेना। उनका अपमान मत करना। नगर में दौड़ना-चिल्लाना मत। शीघ्र ही लौट आना तुम लोग। वहाँ परस्पर भी मत झगड़ना और किसी नगरवासी से तो झगड़ना ही नहीं।’ ‘मैं कहाँ किसी से झगड़ता हूँ।’ कृष्णचन्द्र ने मुख बनाया– ‘मैं तो अभी थोड़ा-सा नगर देखकर आ जाऊँगा।’ व्रजपति को सन्तोष नहीं है। उनको बहुत कुछ बालकों को समझा देना आवश्यक लगता है; किन्तु बालक तो शीघ्रता में ही रहते हैं। वे बड़ों की शिक्षा ध्यान देकर कहाँ सुनते हैं। नील-पीत वसन, मयूरपिच्छधारी, वनमाली दोनों कुमार गोप-बालकों से घिरे निकल पड़े आम्रोपवन से। उन्होंने व्रजपति को, गोपों को आश्वासन दे दिया कि सीधे मार्ग से जाकर उसी से लौट आवेंगे। व्रजेश और गोप-बालकों को खड़े-खड़े देखते रहे। अब जब तक ये बालक लौटकर न आवें, इन्हीं में मन-प्राण लगा रहेगा। गोपों को छकड़े के चरते बैलों की भी अब सुधि नहीं आती है और बालक तो नगर की ओर हँसते-बोलते जा रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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