अक्रूर ब्रज गये
‘आप इसकी चिन्ता न करें।’ कंस हँसा। वह जानता है कि अक्रूर जी शान्त स्वभाव के हैं। वह उन्हें भाग्यवादी-निराशावादी ही मानता था। लेकिन इस समय अपना काम आ अटका था। कोई ऐसा चाहिये जिस पर नन्दादि विश्वास करें। अक्रूर वसुदेव जी के कुल-बन्धु हैं। धार्मिक प्रख्यात हैं। कंस के राज्य में भी दानाध्यक्ष होने के कारण पीड़ितों-दु:खियों, असहायों को राजकोष से सहायता दिलाना ही इनका कार्य रहा है। कोई क्रूरता या कंस की किसी क्रूरता के समर्थन का आरोप अक्रूर पर नहीं है। इन पर कोई अविश्वास नहीं करेगा। यह सब सोचकर ही कंस ने उन्हें चुना था। वह बोला– ‘आप तो नन्दव्रज जाकर उन दोनों बालकों को शीघ्र यहाँ ले आवें।’
अब तक भी बात कुछ पूरी नहीं हुई। अक्रूर ने फिर कंस की ओर देखा- ‘अन्तत: वे वहाँ जाकर कहेंगे क्या?’
कंस जानता है कि अक्रूर अपनी ओर से झूठ नहीं बोलेंगे, न बहाना बनाना उन्हें आवेगा। अत: उसने कहा– ‘चतुर्दशी को धनुष-यज्ञ होगा। धनुष का पूजन करके मैं धनुषोत्तोलन करूँगा। इस अवसर पर नगर भरपूर सजाया जायेगा। नन्द से कहिये कि मैंने दोनों कुमारों को धनुष-यज्ञ तथा नगर की शोभा देखने बुलाया है। नन्दादि गोपों को भी उपहार लेकर इस अवसर पर अवश्य आना चाहिये।’
‘मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।’ अक्रूरनजी ने इतना ही कहा। उन अल्पभाषी का इतना ही कहना पर्याप्त था। कंस से अनुमति लेकर वे अपने गृह चले गये। कंस ने कह दिया उसका रथ प्रात: उनके द्वार पर प्रस्तुत मिलेगा।
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