भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
केशी गया
‘आप बहुत शकुनज्ञ कहे जाते हैं’ कंस ने तनिक व्यंग्य से कहा– ‘क्या देखते हैं आप?’ क्या सम्मति है आपकी?’ ‘यह राहु स्वाति नक्षत्र का वेध कर रहा है। स्वाति नक्षत्र तुम्हारे कर्म-नक्षत्र चित्रा से दूसरा है और उससे तुम्हारा जन्म-नक्षत्र मृगशिरा अठारवां होता है। मंगल सर्वतोभद्र चक्र में तुम्हारे नक्षत्र चित्रा पर वक्री है।’ कंस ने यह राजसभा रात्रि के प्रथम प्रहर में बुलायी थी। अन्धक जी आकाश की ओर देखकर कह रहे थे– ‘बुध पश्चिम में उदित है, यह राजभंग सूचक है। शुक्र सूर्य मार्ग पर अतिचारी है। धूम्रकेतु की पूँछ से भरणी आदि तेरह नक्षत्र विद्ध हैं।’ आजकल सांयकाल धूम्रकेतु दीखने लगता था और लोग प्राय: उसके अशुभ प्रभाव की चर्चा करते थे। अन्धक जी ने उसकी ओर संकेत किया, फिर बोले- ‘आज ही सांयकाल सूर्य को मण्डल लगा था। इधर कई दिनों से सन्ध्या को एक गीदड़ी श्मशान से निकलकर भयानक शब्द करते हुए मथुरा का चक्कर लगाती है। थोड़े समय पहले ही वज्रापात की ध्वनि करती उल्का गिरी पृथ्वी पर। अभी तो सूर्य ग्रहण पड़ा था, उससे दिन में रात्रि का अन्धकार हो गया था।’ अन्धक जी ने और अशुभ गिनाये– ‘परसों ही बिना मेघों के बिजली गिरी। कई बार मेघ गड़गड़ाहट के साथ रक्त की वर्षा करते हैं। देव प्रतिमायें अपने स्थानों से प्राय: स्वयं हट जाती हैं, ऐसे समाचार बहुत आ रहे हैं। ज्योतिषी इसे छत्रभंग सूचक मानते हैं। अत: कंस! मेरी मानो तो वसुदेव को लेकर नन्दव्रज तुम स्वयं कल जाओ और कृष्ण से सन्धि कर लो।’ कंस के नेत्र अंगारे हो गये। वह उठा और बिना बोले वहाँ से भीतर चला गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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