भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
श्रीगर्गाचार्य गोकुल गये
‘नन्दराय जी भविष्य में छोटे के साथ ही इस बड़े का भी संस्कार करा लिया करें।’ वसुदेव जी ने बड़ी नम्रता से यह सन्देश देने को कहा। तुम ठीक कहते हो।’ महर्षि गर्ग मुस्कराये– ‘शाण्डिल्य जी को इतना स्वत्व मुझे दे देना चाहिये। उनका सहकर्मी होना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। वे महाताप से इस नाते कभी मथुरा बुलाये गये यज्ञादि में तो ॠत्विक बनना अस्वीकार नहीं कर पावेंगे।’ वसुदेव जी ने प्राणिपात करके अनुमति ली। महर्षि हवनकुण्ड के समीप चले गये और वसुदेव जी को भी अपने स्नानान्तर के शेष कृत्य पूर्ण करने थे। महर्षि गोकुल आये। दूसरे ही दिन सांयकाल स्वयं पधारे वसुदेव जी के भवन। अर्घ्य-पाद्यादि से उनकी सविधि अर्चा हो चुकी तो उन्होंने संकेत कर दिया सेविकाओं को कक्ष से चले जाने का। ‘मेरी दक्षिणा व्रजपति ने दे दी है।’ महर्षि सुप्रसन्न बोले– ‘रोहिणीकुमार राम तो है ही, बलाधिक्य के कारण बल भी है। उस संकर्षण का प्रभाव शैशव में भी असीम है। ऐसा लगता है कि वही सदा से सबका गुरु है। उसे अंक में मैंने लिया किंतु लगता था कि स्वयं त्रिभुवन का ज्ञानदाता है। गर्ग उसका शिष्य होता तो अपने को कहीं अधिक धन्य मानता।’ ‘देवि! तुम्हारा वह नीलसुन्दर वासुदेव! वह तो कृष्ण है–आनन्द की सहज सत्ता। त्रिलोकी को धन्य करने वह धरा पर आया है। उसके गुणों की, गुणों के अनुरूप नामों की गणना करना मेरे गुरु भगवान शिव के भी बस की बात नहीं। मैं गोकुल जाकर कृतकृत्य हो गया। उस कुमार के सरोज,धव्ज, वज्र, यवादि चिह्नों से चिह्नित श्रीचरणों का स्पर्श मिला मुझे।’ महर्षि के नेत्रों से वारिधारा झरने लगी। उनका शरीर पुलकित हो उठा। कई क्षणों तक वे मौन रहे। अन्त में उन्होंने स्वयं अपने को सम्हाला– ‘दोनों कुमारों के नाम एकार्थक हैं। वस्तुत: दोनों अभिन्न हैं। एक के ही दो रूप गौर-श्याम।’ देवकी जी की ओर महर्षि ने दृष्टि उठायी– ‘तुम उन पुरुषोत्तम की जननी हो। वे धरा का भार ही दूर करने तो आये हैं। कंस और उसके असुर मरेंगे–उनके सम्मुख असुरों में जो जायगा, मारा जायगा। गर्ग की यह भविष्यवाणी कभी असत्य नहीं होगी देवी! वे त्रिभुवन भयहारी–उनके लिए भय की सत्ता ही नहीं। तुम चिन्ता का त्याग करो।’ श्रीव्रजराज, नन्दरानी और रोहिणी जी की प्रशंसा करके, उनका समाचार देकर सुपूजित होकर महर्षि उस सदन से विदा हुए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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