भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अटके प्राण
श्रीधर फिर मथुरा में नहीं दीखा। उसके प्रति किसी की सहानुभूति नहीं थी, अत: किसी ने खोज-खबर उसकी नहीं ली कि उसका क्या हुआ। उसके चले जाने से मथुरा के नागरिक प्रसन्न ही हुए। कंस ने कागासुर को भेजा था। इस सम्वाद ने बहुत चिन्ता नहीं दी; क्योंकि सम्वाद जिसने दिया, उसने सुना दिया– ‘भला कौए को मथुरा से गोकुल जाते कितनी देर; किन्तु वह तो फट से कंस के पैरों के पास आ गिरा। मरते-मरते भी असुर झूठ बोलते हैं? वह मरते-मरते कंस से कह गया– ‘नन्द के शिशु ने पालने में पड़े-पड़े हाथ लम्बाकर उसे पकड़कर फेंक दिया।’ यह समाचार लाने वाला सेवक देर तक पेट पकड़कर हँसता रहा था– ‘लगता है कि गोप-बालक ने गुलेल का लक्ष्य बस कौए को बनाया। ऐसा पत्थर लगा इसे कि बुद्धि भी ठिकाने नहीं रह गयी।’ ‘कंस के सिंहासन के पास कौआ मरा।’ सेवक ने फिर हँसकर कहा– ‘महाराज कंस के लिए बड़ा भारी शकुन तो हुआ यह आज।’ सप्ताह भी नहीं बीतते ऐसे सम्वादों को और कंस के किसी नवीन उत्पात समाचार मिल जाता है। सेविका ने आज सुनाया– ‘कंस उत्कच को गोकुल जाने को कहता सुना गया।’ उत्कच अदृश्य रहता है। वायु शरीरी है। मथुरा में सब जानते हैं कि चाक्षुष मन्वन्तर में उत्कच ने जब मदमत्त होकर महर्षि लोमश के आश्रम के बहुत-से वृक्ष उखाड़ दिये, तब महर्षि ने क्रोध में आकर इसे शाप दे दिया–तू घोर वायु के समान वृक्षों को गिराता है, अत: वायुदेह हो जा।’ इस शाप से तो उत्कच की तो शक्ति ही बढ़ी। वह अधिक उत्पाती हो गया। वह अदृश्य रहकर सर्वत्र जा सकता है और कुछ भी उत्पात कर सकता है। कंस की दिग्विजय के समय इसने कंस को गिरा देने का प्रयत्न किया था। कंस पैर टेके जमा खड़ा रहा। तब से यह कंस का मित्र हो गया। कंस के अनुरोध पर मथुरा आ गया। कंस ने इसे उत्तम गुफा समीप के पर्वत में दे रखी है। इसके लिए नियम से आहार कंस के सेवक उस गुफा में रखते रहे हैं। उत्कच चाहे जब, चाहे जिसके गृह या उद्यान में उत्पात करने लगता था। वस्त्र फटने लगे, भाण्ड गिरने-फूटने लगे, वृक्ष टूटने लगे और कोई कारण न दीखे तो लोग समझ लेते थे कि उत्कच आ गया है। इस असुर के अट्टहास और दुर्वाक्य कभी भी आकाश से आने लगते थे। कुशल यही थी कि वायु शरीर होने के कारण यह अधिक देर कहीं टिक नहीं पाता था। ‘पूतना कितनी भी भयानक थी–दीखती तो थी। उत्कच तो दीखता ही नहीं। कंस ने यह अदृश्य रहने वाला असुर गोकुल भेज दिया– ‘हे नारायण।’ वसुदेव-देवकी के प्राण चीत्कार कर उठे। इस बार यह चिन्ता मिटने का नाम नहीं लेती। उत्कच का कोई सम्वाद नहीं आया। उस अदृश्य शरीरी का क्या हुआ, पता भी कैसे लगता। यह कौन जानता कि वह नन्द-प्रांगण में शकट में आविष्ट हुआ था और नन्दतनय ने उसे चरणस्पर्श देकर मुक्त कर दिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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