भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
पूतना गयी
नगरों में, ग्रामों में, घूमते-फिरते लोगों के डेरों में–पूतना को प्रवेश भला कहाँ नहीं। वह निशाचरी शिशुओं की हत्या करती सर्वत्र घूमने लगी। वह अब पूरी रात्रि उलूकी बनकर और दिन में बकी बनकर घूमती। जहाँ जैसा अवसर देखती, वैसा वेश बना लेती। दस दिन तक के सूतिका-गृह में अथवा उसके बाहर आये शिशु उसके आखेट बनने लगे। मथुरा में शिशु नहीं थे उस समय और मथुरा के सर्वथा समीप गोकुल में कई दिनों पूतना गयी नहीं। योगमाया की प्रेरणा तो थी ही–वह उलूकी या बकी बनकर उड़ती तो गगन में पहुँचने पर ठीक नीचे दृष्टि नहीं जाती उसकी। वह सीधे जहाँ दृष्टि पड़ती उन दूरस्थ स्थानों की ओर उड़ जाती। वह भाद्र कृष्ण चतुदर्शी थी। पूतना घूमती हुई मथुरा में यमुना तट की ओर निकल आयी थी। उसका विशाल शरीर, मल्लों जैसे सुपुष्ट काय थी वह और कज्जल कृष्ण वर्ण था उसका, यदि वह अपने सहज रूप में रहे। उस समय उसे देखकर अच्छे-अच्छे शूर भी सहम उठते थे। सहसा पूतना की दृष्टि गयी यमुना पार बसे गोकुल के गोप-गृहों पर। उसे वाद्य-ध्वनि ने आकृष्ट किया– ‘यह तो किसी के यहाँ पुत्रोत्सव जैसा कुछ मनाया जा रहा है।’ पूतना को स्वयं आश्चर्य हुआ कि वह अब तक इतने समीप के गोपों के पुर में क्यों नहीं गयी। उसने उड़ने का निश्चय किया बकी बनकर; किन्तु ठिठक गयी उसे पता था कि गोपों के कुलाचार्य महर्षि शाण्डिल्य हैं। ‘वह बूड्ढा जटिल भयानक है।’ पूतना जानती है कि उन तपोधन की दृष्टि को धोखा नहीं दिया जा सकता। वे रोष में आकर शाप दे दें तो पूतना तो क्या, समस्त असुर कुल दो क्षण में भस्म हो जायगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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