भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
योगमाया
कंस दिन भर उद्विग्न रहा–उसके भवन में भी सब सोये ही रहे प्राय: आज। मध्यान्ह एवं रात्रि-भोजन वह इधर कई दिनों से अपने कक्ष में ही करता है। वह भोजन करने जावे और कारागार से सन्देश आ जाये तो? जो मायावी हरि इस बार देवकी से प्रकट होने वाला है, वह क्षणों में वामन से विराट बनने वाला ही है–यह कंस कैसे भूल सकता है। आज आहार कौन कक्ष में रख गया–यह कंस ने नहीं देखा। आहार लाने वाली से भी उसने पूछा था– ‘कारागार से ……?’ उसने कुछ उत्तर भी दिया, यह कंस के कान नहीं सुन सके। उसकी दृष्टि तो मन के साथ बाहरी द्वार की ओर लगी थी। अब उसे यह भी स्मरण नहीं कि उसने भोजन कैसे कर लिया था। आधी रात होते-होते कंस इतना उद्विग्न हो गया कि स्वयं कारागार चल देने को कई बार द्वार तक पहुँचा; किन्तु भयानक वर्षा हो रही थी। ऐसी वर्षा में निकलते उसके भी प्राण कांपे– ‘इस अन्धकार में अचानक वह मायावी शत्रु कहीं मार्ग में टूट पड़े अपने ऊपर? वर्षा रुकी। गगन स्वच्छ हुआ और कंस अपने कक्ष से निकलने ही वाला था कि दौड़ते हुए कारागार के रक्षक आ गये– ‘महाराज! देवकी के सन्तान हुई। ‘देवकी के सन्तान हुई।’ कंस ने दुहराया। वैसे ही खुले केश, नंगे पैर दौड़ पड़ा वह नंगी तलवार लिये। मस्तक पर मुकुट रखने, मार्ग-प्रकाशक सेवक साथ लेने की उसे सुधि कहाँ। कंस अनेक बार फिसला–गिरते-गिरते बचा मार्ग में। वर्षा हुई थी और खूब हुई थी। पानी का बरसना रुका था; किन्तु मार्ग पिच्छल था और कंस दौड़ रहा था। इतने वेग से वह दौड़ रहा था कि कारागार से सन्देश लेकर आये रक्षक उसका साथ नहीं दे सकते थे। वे पीछे छूट गये। कारागार-रक्षकों ने दूर से द्वार पर जलते प्रकाश में कंस को देखा और द्वार खोल दिया। वैसे भी अब प्रात:काल का धुंधला प्रकाश फैलने लगा था। मार्ग अब दीखने लगा था। गगन स्वच्छ होने से यह प्रकाश शीघ्रता से बढ़ रहा था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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