कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन

महाभारत भीष्म पर्व में श्रीमद्भगवद्गीता पर्व के अंतर्गत 31वें अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को भगवान को न जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की महिमा का वर्णन करते हैंं, जिसका उल्लेख हुआ है, जो इस प्रकार है-[1]

कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन

श्रीकृष्ण कहते हैंं कि हे भरतवंषियों में श्रेष्ठ अर्जुन![2] उत्तम कर्म करने वाले अर्थार्थी[3] आर्त्त,[4] जिज्ञासु[5] और ज्ञानी[6] ऐसे चार प्रकार के भक्त मुझको भजते हैं। उनमें नित्य मुझ में एकी भाव से स्थित अनन्य प्रेम भक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है,[7] क्योंकि मुझको तत्त्व से जानने-वाले ज्ञानी को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।[8] सम्बन्ध-भगवान् ने ज्ञानी भक्त को सबसे श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय बतलाया। इस पर यह शंका हो सकती है कि क्या दूसरे भक्त श्रेष्ठ और प्रिय नही है इस पर भगवान् कहते हैं-ये सभी उदार है,[9] परंतु ज्ञानी तो साक्षात मेरा स्वरूप ही है[10]ऐसा मेरा मत है क्योंकि सह मद्रत मन-बुद्धिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है। बहुत जन्मों के अन्त[11] के जन्म में तत्त्वज्ञान[12] को प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है-इस प्रकार मुझको भजता है[13] वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। उन-उन भोगों की कामना द्वारा जिनका ज्ञान हारा जा चुका है, वे लोग अपने स्वभाव से प्रेरित होकर[14] उस-उस नियम को धारण करके अनय देवताओं को भेजते हैं अर्थात पूजते हैं। [15][1]


जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है,[16] उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता-के प्रति स्थिर करता हूँ। वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त होकर उस देवता का पूजन करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किये हुए उन इच्छित भोगों को निःसंदेह प्राप्त करता है। परंतु उन अल्प बुद्धिवालो का[17] वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओं को पूजने वाले देवताओ को प्राप्त होते हैंं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजे, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं[18] सम्बन्ध - जब भगवान् इतने प्रेमी और दयासागर हैं कि जिस-किसी प्रकार से भी भजने वाले को अपने स्वरूप की प्राप्ति करा ही देते हैं, तो फिर सभी लोग उनको क्यों नही भजते, इस जिज्ञासा पर कहते हैं-- न जानते हुए[19] मन-इन्द्रियों से परे मुझ सचिदानन्दघन परमात्मा को मनुष्य की भाँति जानकर व्यक्तिभाव को प्राप्त हुआ मानते हैंं।[20] क्योंकि अपनी योगमाया से छिपा हुआ[21] मैं सबके प्रत्यक्ष नही होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेंश्वर को नही जानता अर्थात मुझको जन्म से-मरने वाला समझता है।[22] हे अर्जुन! पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा आगे वाले सब भूतो को मैं जानता हूं,[23] परंतु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नही जानता।[24] क्योकि हे भरतवंशी अर्जुन! संसार में इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुख-दुःख आदि द्वन्द्वरूप मोह से[25] सम्पूर्ण प्राणी अत्यन्त अज्ञात को प्राप्त हो रहे है। परंतु निष्कामभाव से श्रेष्ठ कर्मों का आचरण करने वाले जिन पुरुषो का पाप नष्ट हो गया है, वे राग द्वेषजनित द्वन्द्वरूप मोह से मुक्त द्रढनिश्रयी भक्त मुझको सब प्रकार से भजते हैंं[26] जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिये यत्न करते हैंं,[27] वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्‍यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैंं। एवं जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव के सहित तथा अधियज्ञ-के सहित (सबके आत्मरूप) मुझे अन्तकाल में भी जानते हैंं, वे युक्तचित्‍त वाले पुरुष मुझे जानते हैंं[28] अर्थात प्राप्त हो जाते हैंं।[29]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 6-13
  2. जन्म-जन्मानतर से शुभ कर्म करते-करते जिनका स्वभाव सुधरकर शुभ कर्मशील बलन गया है और पूर्व-संस्कारों के बल से अथवा महत्सड के प्रभाव से इस जन्म में भी भगवदाज्ञानुसार शुभकर्म ही करते हैं, उन शुभकर्म करने वालों को सुकृती कहते हैं!
  3. स्त्री, पु़त्र, धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग-सुख आदि इस लोक और परलोक के भोगों में से, जिसके मन में एक की या बहतो की कामना है, परंतु कामना पूर्ति के लिये जो केवल भगवान पर ही निर्भर करता है और इसके लिये जो श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान् का भजन करता है, वह अर्थार्थी भक्त है। सुग्रीव-विभीषण आदि भक्त अर्थार्थी माने जाते हैं। इनमें प्रधानता से ध्रुव का नाम लिया जाता है।
  4. जो शारीरिक या मानसिक संताप, विपत्ति, शत्रुभय, रोग, अपमान, चोर, डाकू और आतताथियों के अथवा हिंस्त्र जानवरों के आक्रमण आदि से धगराकर अनसे छूटने के लिये पूर्ण विश्रास के साथ हदय की अडिग श्रद्धा से भगवान् भजन करता है। वह आर्त भक्त है। आर्त गजराज, जरासंघ के बंदी राजागण आदि बहुत-से माने जाते हैं; परंतु सती द्रौपदी नाम मुख्यतया लिया जाता है।
  5. धन, स्त्री, पुत्र,गृह आदि वस्तुओं की और रोग-संकटादि की परवा न करके एकमात्र परमात्मा को तत्त्व से जानने- की इच्छा से ही जो एकनिष्ठ होकर भगवान् की भक्ति करता है, उस कल्याणकामी भक्त को जिज्ञासु कहते हैं। जिज्ञासु भक्तो में परीक्षित् आदि अनेको के नाम है, परंतु उद्धवजी का नाम विशेष प्रसिद्ध है।
  6. जो परमात्माको प्राप्त कर चुके है जिनकी द्ष्टि में एक परमात्मा ही रह गये है-परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ है ही नही और इस प्रकार परमात्मा को प्राप्त कर लेने से जिनकी समस्त कामनाएं निःशेष रूप से समाप्त हो चुकी है, तथा ऐसी स्थिति में जो सहत भाव से ही परमात्मा का भजन करते हैं। वे ज्ञानी है,। गीता के नवें अध्यापक के तेरह वे और चौदहवें श्लोको में तथा दसवें अध्यापक तीसरे और पंद्रहवें अध्यापक के उन्नीसवें श्लोक में जिनका वर्णन है, वे निष्काम अननय प्रेमी साधक भक्त भी ज्ञानी भक्तो के अन्तर्गत है। ज्ञानियो में शुक्रदेवजी, सनकादि, नारदजी और भीष्मजी आदि प्रसिद्ध है। बालक प्रहलाद भी ज्ञानी भक्त माने जाते हैं।
  7. संसार, शरीर और अपने-आपको सर्वथा भुलकर जो अनन्यभावसे नित्य-निरन्तर केवल भगवान् में स्थित है, उसे नित्ययुक्त कहते हैं। और जो भगवान् में ही हेतुरहित और अविरल प्रेम करता है एकभक्ति कहते हैं; ऐसा भगवान् के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानी भक्त अन्य सबसे उत्तम है।
  8. जिन्होने इस लोक और परलोक के अत्यन्त प्रिय, सुखप्रद तथा सांसारिक मनुष्योकी दृष्टि से दुर्लभ-से-भगवान् का कितना महत्त्व है और उनको भगवान् कितने प्यारे हैं - दूसरे किसीके द्वारा इसकी कल्पना भी नही की जा सकती। इसीलिये भगवान् कहते हैंं कि ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ। और जिनको भगवान् अतिशय प्रिय हैं, वे भगवान् को तो अतिशय प्रिय होंगे ही।
  9. वे सब प्रकार के भक्त इस बात का भलीभाँति निश्रय कर चुके है कि भगवान् हैं , सर्वज्ञ है, सर्वेश्रर हैं, परम दयालु है और परम सुहद् है;हमारी आशा और आकांशाओ की पूर्ति मात्र उन्होंने हो सकती है। ऐसा मान और जानकर, वे अन्य सब प्रकार के आश्रयों को त्याग करके अपने जीवन को भगवान् के ही भजन-स्मरण, पूजन और सेवा आदि में लगाये रखते हैं। उनकी एक भी चेष्टा ऐसी नही होती, जो भगवान् के विश्वास में जरा भी त्रुटि लानेवाली दो।इसलिये सबको उदार कहा गया है।
  10. इस कथन से भगवान् यह भाव दिखला रहे हैं कि ज्ञानी भक्त में और मुझमें कुछ भी अन्तर नही है। भक्त है सो मैं हू और मैं हू सो भक्त है।
  11. जिस जन्म में मनुष्य भगवान् का ज्ञानी भक्त बन जाता है, वही उसके बहुत-से जनम कि अन्त का जन्म है; क्योकि भगवान् को इस प्रकार तत्त्व से जान लेने पश्चात् उसका पुन; जन्म नही होता वही उसका अन्तिम जन्म होता है।
  12. भगवान ने इसी अध्याय के दूसरे श्लोक में विज्ञानसहित जिस ज्ञान के जानने की प्रशंसा की थी, जिस प्रेमी भक्त ने उस विज्ञानसहित ज्ञान को प्राप्त कर लिया है तथा तीसरे श्लोक में जिसके लिये कहा है कि कोई एक ही मुझे तत्त्व से जानता है, उसी के लिये यहाँ ज्ञानवान् शब्द का प्रयोग हुआ है। इसीलिये अठारहवें श्लोक में भगवान् ने उसको अपना स्वरूप बतलाया है।
  13. सम्पूर्ण जगत भगवान् वासुदेव का स्वरूप है, वासुदेव के सिवा और कुछ है ही नही, इस तत्त्व का प्रत्यक्ष और अटल अनुभव हो जाना और उसी में नित्य स्थित रहना - यही सब कुछ वासुदेव है, इस प्रकार से भगवान् का भजन करना है। जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मो से संस्कारो का संचय होता है और उस संसकार समूह से जो प्रकृति बनती है, उसे स्वभाव कहा जाता है। स्वभाव प्रत्येक जीवका भिन्न होता है उस स्वभाव के अनुसार जो अन्तः करण में भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करने की भिन्न-भिन्न इच्छा उत्पन्न होती है, उसी को उससे प्रेरित होना कहते हैं।
  14. जन्म-जन्मान्तर में किये हुए कर्मो से संस्कारो का संचय होता है और उस संसकार समूह से जो प्रकृति बनती है, उसे स्वभाव कहा जाता है। स्वभाव प्रत्येक जीव का भिन्न होता है उस स्वभाव के अनुसार जो अन्तः करण में भिन्न-भिन्न देवताओं का पूजन करने की भिन्न-भिन्न इच्छा उत्पन्न होती है, उसी को उससे प्रेरित होना कहते हैं।
  15. सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, इनद्र, मरूत्, यमराज और वरुण आदि शासत्रोक्त देवताओ को भगवान् से भित्र समझकर, जिस देवता की, जिस उद्येश्य से की जाने वाली उपासना में जप, ध्यान, पूजन, नमस्कार, न्यास, हवन, व्रत, उपवास आदि के जो-जो भिन्न-भिन्न नियम है, उन-उन नियमो को धारण करके बडी सावधानी के साथ उनका भली-भान्ति पालन करते हुए उन देवताओ की आराधना करना ही उस-उस नियम को धारण करके अन्य देवताओ को भेजना है।
  16. देवताओ की सत्ता में, उनके प्रभाव और गुणों में तथा पूजन- प्रकार और उसके फल में पूरा विश्वास करके श्रद्धा-पूर्वक जिस देवता की जैसी मूर्ति का विधान हो, उसकी वैसे ही धातु, काष्ठ, मिट्टी, पाषाण आदि की मूर्ति या चित्रपट की विधिपूर्वक स्थापना करके अथवा मनके द्वारा मानसिक मूर्तिका निर्माण करके जिस मन्त्र की जितनी संख्या के जपपूर्वक जिन सामग्रियो से जैसी पूजा का विधान हो, उसी मन्त्र की उतनी ही संख्या जपकर उन्हीं सामग्रियो से उसी विधान से पूजा करना, देवताओ के निमित्त अग्नि में आहुति देकर यज्ञादि करना, उनका ध्यान करना, सूर्य , चन्द्र, अग्नि आदि प्रत्यक्ष देवताओ का पूजन करना और इन सबकायभाविधि नमसकारा आदि करना- यही देवताओ के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना है।
  17. देवोजासक कामनाओ को वश मे होकर, अनय देवताओ को भगवान् से पृथक मानकर, भोगवस्तुओ के लिये उनकी उपासना करते हैं, इसलिये उनका भक्तो उपेक्षा निम्न श्रेणी के और अल्पबुद्धि कहा गया है।
  18. भगवान् के लितय दिव्य परमधाम में निरन्तर भगवान् के समीप निवासकरना अथवा अभेदभावसे भगवान् में एकत्व को प्राप्त हो जाना, दोनो ही को नाम भगवत्प्राप्ति है।
  19. अपनी अनन्त दयालुता और शरणागतवत्सलता के कारण जगत के प्राणियो को अपनी शरणगति का सहारा देने के लिये ही भगवान् अपने अजन्मा, अविनाशी और महेश्वर स्वभाव तथा सामर्थ्य सहित ही नाना सवरूपों में प्रकट होते हैं और अपनी अलौकिक लीलाओ से जगत के प्राणियो को परमानन्द के महान् सागर में निमग्न कर देते हैं। भगवान् का यही नित्य, अनुत्तम और परम भाव है तथा इसको न समझना ही उनके अनुत्तम अविनाशी परमभावको न जानना है।
  20. भगवान के निर्गुण-सगुण दोनो ही रूप नित्य और दिव्य है। मनुष्य आदि रूप में उनका प्रादुर्भाव होना ही जन्म है और अन्तर्घान हो जाना ही परमघामगमन है। अनय प्राणियो की भाँति शरीर -संयोग -वियोगरूप जन्म-मरण उनके नही होते। इस रहस्य को न समझने के कारण बुद्धिहीन मनुष्य समझते हैं कि जैसे अन्य सब प्राणी जन्म से पहले अव्यक्त थे अर्थात उनकी कोई सत्ता नही थी, अब जन्म लेकर व्यक्त हुए है इसी प्रकार यह श्रीकृष्ण भी जनम से पहले नही था, अब वसुदेव के घर में जन्म लेकर व्यक्त हुआ है; अनय मनुष्यो में इसमें अन्तर ही क्या है अर्थात कोई भेद नही हैं। यही बुद्धिहीन मनुष्य को भगवान को अव्यक्त से व्यक्त अुआ मानना है।
  21. गीता के चौथे अध्याय के छठे श्लोक में भगवान ने जिसको आत्ममाया कहा है, जिस योगशक्ति भगवान् दिव्य गुणो के सहित स्वयं मनुष्य आदि रूपो में प्रकट होते हुए भी लोकदॄष्टि में जन्म धारण करने वो साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं।, उसी मायाशक्ति नाम योगमाया है। उससे वासतव में भगवान् आवृत नही होते तथापि जैसे लोगो की दॄष्टि दलो से आवृत हो जाने के कारण ऐसा कहा जाता है कि सूर्य बादलो से ढका गया, उसी प्रकार यहाँ भगवान् का अपने को योगमाया से छिपा रहना बताना है।
  22. श्लोक पद को प्रयोग केवल भगवान के भक्तो को छोडकर शेष पापी , पुण्यात्मा - सभी श्रेणी के साधारण अज्ञानी मनुष्य समुदाय के लिये किया गया है।
  23. यहाँ भगवान् यह कहते हैं कि देवता, मनुष्य पशु और कीट-पतगों जितने भी भूत- चराचर प्राणी है। वे सब कब से पूर्व अनन्त कल्प-कल्पानतरो में कब किन-किन योनियो में किस प्रकार उत्पन्न होकर कैसे रहे थे और उन्होंने क्या-क्या किया था। तथा वर्तमान कल्प मे कौन, कहां, किस योनियो में किस प्रकार उत्पन्न होकर क्या कर रहे है और भविष्य कल्पो में कौन कहाँ किस प्रकार रहेगे, इन सब बातो को मै जानता हूँ। वास्तव में भगवान् के लिये भूत, भविष्य और वर्तमान काल का भेद नही है। उनके अखण्ङ ज्ञानस्वरूप में सभी कुछ-सदा-सर्वदा प्रत्यक्ष है।
  24. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 21-26
  25. जिनको भगवान् मनुष्य के कल्याण मार्ग में विघ्न डालने वाले शत्रु बतलाया है और काम-क्रोध के नाम से जिनको पापो में हेतु तथा मनुष्य को वैरी कहा हैउन्हीं राग द्वेष का यहाँ और द्वेष के नाम से वर्णन किया है। इन इच्छा-वेष से जो हर्ष -शोक और सुख-दुख इत्यादि द्वन्द्व उत्पन्न होते हैं वे इस जीव के अज्ञान को हढ करने में कारण होते हैं अतएव उन्हीं का नाम द्वन्द्व रूप मोह है।
  26. भगवान् को ही सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वशक्तिमान् सबके आत्मा और परम पुरुषोत्तम समझकर बुद्धि से उनके तत्त्व निश्चय , मन से उनके गुण, प्रभाव , स्वरूप और लीला-रहस्य का, वाणी से उनके नाम और का कीर्तन, सिर उनको नमस्कार, हाथो से उनकी पूजा और दीन दुखी आदि के रूप में उनकी सेवा , नेत्रो उन के विग्रह के दर्शन, चरणो से उन के मन्दिर और तीर्थादि में जाना तथा अपनी समस्त वस्तुओ को निःशेष रूप से केवल उनके ही अर्पण करके सब प्रकार केवल उन्हीं का हो रहना- यही सब प्रकार से उनको भजना है।
  27. यहाँ भगवान् यह कहते हैं कि ‘जो संसार के सब विषयों के आश्रय को छोड़कर दृढ़ विश्‍वास के साथ एकमात्र मेरा ही आश्रय लेकर निरन्तर मुझमें ही मन-बुद्धि को लगाये रखते हैं, वे मेरे शरण होकर यत्न करने वाले हैं।’
  28. उन्तीसवें श्‍लोक में वर्णित ‘ब्रह्म’, जीवसमुदायरूप ‘अध्‍यात्म’, भगवान् का आदि संकल्प रूप ‘कर्म’ तथा उपर्युक्त जडवर्गरूप ‘अधिभूत’, हिरण्‍यगर्भरूप ‘अधिदैव’ और अन्तर्यामीरूप ‘अधियज्ञ’- सब एक भगवान् के ही स्वरूप हैं। यही भगवान् का समग्र रूप है। अध्‍याय के आरम्भ में भगवान् ने इसी समग्र रूप को बतलाने की प्रतिज्ञा की थी। फिर सातवें श्‍लोक-में ‘मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं हैं’, बारहवें में ‘सात्त्विक’ राजस और तामस भाव सब मुझसे ही होते हैं’ और उन्नतीसवें में ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’ कहकर इसी समग्र का वर्णन किया है तथा यहाँ भी उपर्युक्त शब्दों से इसी का वर्णन करके अध्‍याय का उपसंहार किया गया है। इस समग्र को जान लेना अर्थात् जैसे जल के परमाणु, भाप, बादल, धूम, जल और बर्फ सभी जल स्वरूप ही हैं, वैसे ही ब्रह्म, अध्‍यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ- सब कुछ वासुदेव ही हैं- इस प्रकार यथार्थ रूप से अनुभव कर लेना ही समग्र ब्रह्म को या भगवान् को जानना है।
  29. महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 31 श्लोक 27-30

सम्बंधित लेख

महाभारत भीष्म पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व
कुरुक्षेत्र में उभय पक्ष के सैनिकों की स्थिति | कौरव-पांडव द्वारा युद्ध के नियमों का निर्माण | वेदव्यास द्वारा संजय को दिव्य दृष्टि का दान | वेदव्यास द्वारा भयसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों का वर्णन | वेदव्यास द्वारा विजयसूचक लक्षणों का वर्णन | संजय द्वारा धृतराष्ट्र से भूमि के महत्त्व का वर्णन | पंचमहाभूतों द्वारा सुदर्शन द्वीप का संक्षिप्त वर्णन | सुदर्शन द्वीप के वर्ष तथा शशाकृति आदि का वर्णन | उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान का वर्णन | रमणक, हिरण्यक, शृंगवान पर्वत तथा ऐरावतवर्ष का वर्णन | भारतवर्ष की नदियों तथा देशों का वर्णन | भारतवर्ष के जनपदों के नाम तथा भूमि का महत्त्व | युगों के अनुसार मनुष्यों की आयु तथा गुणों का निरूपण
भूमि पर्व
संजय द्वारा शाकद्वीप का वर्णन | कुश, क्रौंच तथा पुष्कर आदि द्वीपों का वर्णन | राहू, सूर्य एवं चन्द्रमा के प्रमाण का वर्णन
श्रीमद्भगवद्गीता पर्व
संजय का धृतराष्ट्र को भीष्म की मृत्यु का समाचार सुनाना | भीष्म के मारे जाने पर धृतराष्ट्र का विलाप | धृतराष्ट्र का संजय से भीष्मवध घटनाक्रम जानने हेतु प्रश्न करना | संजय द्वारा युद्ध के वृत्तान्त का वर्णन आरम्भ करना | दुर्योधन की सेना का वर्णन | कौरवों के व्यूह, वाहन और ध्वज आदि का वर्णन | कौरव सेना का कोलाहल तथा भीष्म के रक्षकों का वर्णन | अर्जुन द्वारा वज्रव्यूह की रचना | भीमसेन की अध्यक्षता में पांडव सेना का आगे बढ़ना | कौरव-पांडव सेनाओं की स्थिति | युधिष्ठिर का विषाद और अर्जुन का उन्हें आश्वासन | युधिष्ठिर की रणयात्रा | अर्जुन द्वारा देवी दुर्गा की स्तुति | अर्जुन को देवी दुर्गा से वर की प्राप्ति | सैनिकों के हर्ष तथा उत्साह विषयक धृतराष्ट्र और संजय का संवाद | कौरव-पांडव सेना के प्रधान वीरों तथा शंखध्वनि का वर्णन | स्वजनवध के पाप से भयभीत अर्जुन का विषाद | कृष्ण द्वारा अर्जुन का उत्साहवर्धन एवं सांख्ययोग की महिमा का प्रतिपादन | कृष्ण द्वारा कर्मयोग एवं स्थितप्रज्ञ की स्थिति और महिमा का प्रतिपादन | कर्तव्यकर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन एवं स्वधर्मपालन की महिमा का वर्णन | कामनिरोध के उपाय का वर्णन | निष्काम कर्मयोग तथा योगी महात्मा पुरुषों के आचरण एवं महिमा का वर्णन | विविध यज्ञों तथा ज्ञान की महिमा का वर्णन | सांख्ययोग, निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं ध्यानयोग का वर्णन | निष्काम कर्मयोग का प्रतिपादन और आत्मोद्धार के लिए प्रेरणा | ध्यानयोग एवं योगभ्रष्ट की गति का वर्णन | ज्ञान-विज्ञान एवं भगवान की व्यापकता का वर्णन | कृष्ण का अर्जुन से भगवान को जानने और न जानने वालों की महिमा का वर्णन | ब्रह्म, अध्यात्म तथा कर्मादि विषयक अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर | कृष्ण द्वारा भक्तियोग तथा शुक्ल और कृष्ण मार्गों का प्रतिपादन | ज्ञान विज्ञान सहित जगत की उत्पत्ति का वर्णन | प्रभावसहित भगवान के स्वरूप का वर्णन | आसुरी और दैवी सम्पदा वालों का वर्णन | सकाम और निष्काम उपासना का वर्णन | भगवद्भक्ति की महिमा का वर्णन | कृष्ण द्वारा अर्जुन से शरणागति भक्ति के महत्त्व का वर्णन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूति और योगशक्ति का वर्णन | कृष्ण द्वारा प्रभावसहित भक्तियोग का कथन | कृष्ण द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का पुन: वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण से विश्वरूप का दर्शन कराने की प्रार्थना | कृष्ण और संजय द्वारा विश्वरूप का वर्णन | अर्जुन द्वारा कृष्ण के विश्वरूप का देखा जाना | अर्जुन द्वारा कृष्ण की स्तुति और प्रार्थना | कृष्ण के विश्वरूप और चतुर्भुजरूप के दर्शन की महिमा का कथन | साकार और निराकार उपासकों की उत्तमता का निर्णय | भगवत्प्राप्ति वाले पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | ज्ञान सहित क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का वर्णन | प्रकृति और पुरुष का वर्णन | ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति का वर्णन | सत्त्व, रज और तम गुणों का वर्णन | भगवत्प्राप्ति के उपाय तथा गुणातीत पुरुषों के लक्षणों का वर्णन | संसारवृक्ष और भगवत्प्राप्ति के उपाय का वर्णन | प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप और पुरुषोत्तम के तत्त्व का वर्णन | दैवी और आसुरी सम्पदा का फलसहित वर्णन | शास्त्र के अनुकूल आचरण करने के लिए प्रेरणा | श्रद्धा और शास्त्र विपरीत घोर तप करने वालों का वर्णन | आहार, यज्ञ, तप और दान के भेद की व्याख्या | ओम, तत्‌ और सत्‌ के प्रयोग की व्याख्या | त्याग और सांख्यसिद्धान्त का वर्णन | भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग का वर्णन | फल सहित वर्ण-धर्म का वर्णन | उपासना सहित ज्ञाननिष्ठा का वर्णन | भक्तिप्रधान कर्मयोग की महिमा का वर्णन | गीता के माहात्म्य का वर्णन
भीष्मवध पर्व
युधिष्ठिर का भीष्म, द्रोण आदि से अनुमति लेकर युद्ध हेतु तैयार होना | कौरव-पांडवों के प्रथम दिन के युद्ध का प्रारम्भ | उभय पक्ष के सैनिकों का द्वन्द्व युद्ध | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध | भीष्म के साथ अभिमन्यु का भयंकर युद्ध | शल्य द्वारा उत्तरकुमार का वध और श्वेत का पराक्रम | विराट के पुत्र श्वेत का महापराक्रम | भीष्म द्वारा श्वेत का वध | भीष्म का प्रचण्ड पराक्रम तथा प्रथम दिन के युद्ध की समाप्ति | युधिष्ठिर की चिंता और श्रीकृष्ण द्वारा उनको आश्वासन | धृष्टद्युम्न का उत्साह और क्रौंचारुण व्यूह की रचना | कौरव सेना की व्यूह रचना | कौरव-पांडव सेना में शंखध्वनि और सिंहनाद | भीष्म और अर्जुन का युद्ध | धृष्टद्युम्न और द्रोणाचार्य का युद्ध | भीमसेन का कलिंगों और निषादों से युद्ध | भीमसेन द्वारा शक्रदेव और भानुमान का वध | भीमसेन द्वारा कई गजराजों और केतुमान का वध | भीमसेन द्वारा कौरव सेना के असंख्य सैनिकों का वध | अभिमन्यु और अर्जुन का पराक्रम तथा दूसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडवों की व्यूह रचना | उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | पांडव वीरों का पराक्रम और कौरव सेना में भगदड़ | दुर्योधन और भीष्म का संवाद | भीष्म का पराक्रम | कृष्ण का भीष्म को मारने के लिए उद्यत होना | अर्जुन द्वारा कौरव सेना की पराजय और तीसरे दिन के युद्ध की समाप्ति | कौरव-पांडव सेनाओं का व्यूह निर्माण | भीष्म और अर्जुन का द्वैरथ युद्ध | अभिमन्यु का पराक्रम | धृष्टद्युम्न द्वारा शल के पुत्र का वध | धृष्टद्युम्न और शल्य आदि दोनों पक्ष के वीरों का युद्ध | भीमसेन द्वारा गजसेना का संहार | भीमसेन का पराक्रम | सात्यकि और भूरिश्रवा की मुठभेड़ | भीमसेन और घटोत्कच का पराक्रम | कौरवों की पराजय तथा चौथे दिन के युद्ध की समाप्ति | धृतराष्ट्र-संजय प्रसंग में दुर्योधन का भीष्म से पांडवों की विजय का कारण पूछना | भीष्म का ब्रह्मा द्वारा की हुई भगवत-स्तुति का कथन | नारायणावतार श्रीकृष्ण एवं नरावतार अर्जुन की महिमा का प्रतिपादन | भगवान श्रीकृष्ण की महिमा | ब्रह्मभूतस्तोत्र तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन की महत्ता | कौरवों द्वारा मकरव्यूह तथा पांडवों द्वारा श्येनव्यूह का निर्माण | भीष्म और भीमसेन का घमासान युद्ध | भीष्म, अर्जुन आदि योद्धाओं का घमासान युद्ध | कौरव-पांडव सेनाओं का परस्पर घोर युद्ध | कौरव-पांडव योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध | भूरिश्रवा द्वारा सात्यकि के दस पुत्रों का वध | अर्जुन का पराक्रम तथा पाँचवें दिन के युद्ध की समाप्ति | पांडवों द्वारा मकरव्यूह तथा कौरवों द्वारा क्रौंचव्यूह का निर्माण | धृतराष्ट्र की चिन्ता | भीमसेन, धृष्टद्युम्न तथा द्रोणाचार्य का पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का संकुल युद्ध | भीमसेन के द्वारा दुर्योधन की पराजय | अभिमन्यु आदि का धृतराष्ट्रपुत्रों के साथ युद्ध तथा छठे दिन के युद्ध की समाप्ति | भीष्म द्वारा दुर्योधन को आश्वासन | कौरव-पांडव सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष | श्रीकृष्ण और अर्जुन से डरकर कौरव सेना में भगदड़ | द्रोणाचार्य और विराट का युद्ध तथा विराटपुत्र शंख का वध | शिखण्डी और अश्वत्थामा का युद्ध | सात्यकि द्वारा अलम्बुष की पराजय | धृष्टद्युम्न और दुर्योधन तथा भीमसेन और कृतवर्मा का युद्ध | इरावान द्वारा विन्द-अनुविन्द की पराजय | भगदत्त द्वारा घटोत्कच की पराजय | मद्रराज पर नकुल और सहदेव की विजय | युधिष्ठिर द्वारा राजा श्रुतायु की पराजय | महाभारत युद्ध में चेकितान और कृपाचार्य का मूर्छित होना | भूरिश्रवा से धृष्टकेतु तथा अभिमन्यु से चित्रसेन आदि की पराजय | सुशर्मा आदि से अर्जुन का युद्धारम्भ | अर्जुन का पराक्रम और पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | युधिष्ठिर का शिखण्डी को उपालम्भ | भीमसेन का पुरुषार्थ | भीष्म और युधिष्ठिर का युद्ध | धृष्टद्युम्न के साथ विन्द-अनुविन्द का संग्राम | द्रोण आदि का पराक्रम और सातवें दिन के युद्ध की समाप्ति | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं की रणयात्रा | व्यूहबद्ध कौरव-पांडव सेनाओं का घमासान युद्ध | भीष्म का रणभूमि में पराक्रम | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के आठ पुत्रों का वध | दुर्योधन और भीष्म का युद्ध विषयक वार्तालाप | कौरव-पांडव सेना का घमासान युद्ध और भयानक जनसंहार | इरावान द्वारा शकुनि के भाइयों का वध | अलम्बुष द्वारा इरावान का वध | घटोत्कच और दुर्योधन का भयानक युद्ध | घटोत्कच का दुर्योधन एवं द्रोण आदि वीरों के साथ युद्ध | घटोत्कच की रक्षा के लिए भीमसेन का आगमन | भीम आदि शूरवीरों के साथ कौरवों का युद्ध | दुर्योधन और भीमसेन तथा अश्वत्थामा और राजा नील का युद्ध | घटोत्कच की माया से कौरव सेना का पलायन | भीष्म की आज्ञा से भगदत्त का घटोत्कच से युद्ध हेतु प्रस्थान | भगदत्त का घटोत्कच, भीमसेन और पांडव सेना के साथ युद्ध | इरावान के वध से अर्जुन का दु:खपूर्ण उद्गार | भीमसेन द्वारा धृतराष्ट्र के नौ पुत्रों का वध | अभिमन्यु और अम्बष्ठ का युद्ध | युद्ध की भयानक स्थिति का वर्णन और आठवें दिन के युद्ध की समाप्ति | दुर्योधन की शकुनि तथा कर्ण आदि के साथ पांडवों पर विजय हेतु मंत्रणा | दुर्योधन का भीष्म से पांडवों का वध अथवा कर्ण को युद्ध हेतु आज्ञा देने का अनुरोध | भीष्म का दुर्योधन को अर्जुन का पराक्रम बताना और भयंकर युद्ध की प्रतिज्ञा | दुर्योधन द्वारा भीष्म की रक्षा की व्यवस्था | उभयपक्ष की सेनाओं की व्यूह रचना तथा घमासान युद्ध | विनाशसूचक उत्पातों का वर्णन | अभिमन्यु के पराक्रम से कौरव सेना का युद्धभूमि से पलायन | अभिमन्यु तथा द्रौपदी के पुत्रों का अलम्बुष से घोर युद्ध | अभिमन्यु द्वारा अलम्बुष की पराजय | अर्जुन के साथ भीष्म का युद्ध | कृपाचार्य, द्रोणाचार्य तथा अश्वत्थामा के साथ सात्यकि का युद्ध | द्रोणाचार्य और सुशर्मा के साथ अर्जुन का युद्ध | भीमसेन द्वारा रणभूमि में गजसेना का संहार | कौरव-पांडव उभय पक्ष की सेनाओं का घमासान युद्ध | रक्तमयी रणनदी का वर्णन | अर्जुन द्वारा त्रिगर्तों की पराजय | अभिमन्यु से चित्रसेन की पराजय | सात्यकि और भीष्म का युद्ध | दुर्योधन द्वारा दु:शासन को भीष्म की रक्षा का आदेश | शकुनि की घुड़सवार सेना की पराजय | युधिष्ठिर और नकुल-सहदेव के साथ शल्य का युद्ध | भीष्म द्वारा पराजित पांडव सेना का पलायन | भीष्म को मारने के लिए कृष्ण का उद्यत होना | अर्जुन द्वारा उद्यत हुए कृष्ण को रोकना | नवें दिन के युद्ध की समाप्ति | कृष्ण व पांडवों की गुप्त मंत्रणा | कृष्णसहित पांडवों का भीष्म से उनके वध का उपाय पूछना | उभयपक्ष की सेना का रण प्रस्थान व दसवें दिन के युद्ध का प्रारम्भ | शिखण्डी को आगे कर पांडवों का भीष्म पर आक्रमण | शिखंडी एवं भीष्म का युद्ध | भीष्म-दुर्योधन संवाद | भीष्म द्वारा लाखों पांडव सैनिकों का संहार | अर्जुन के प्रोत्साहन से शिखंडी का भीष्म पर आक्रमण | दु:शासन का अर्जुन के साथ घोर युद्ध | कौरव-पांडव पक्ष के प्रमुख महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को अशुभ शकुनों की सूचना देना | द्रोणाचार्य का अश्वत्थामा को धृष्टद्युम्न से युद्ध करने का आदेश | कौरव पक्ष के दस महारथियों के साथ भीम का घोर युद्ध | कौरव महारथियों के साथ भीम और अर्जुन का अद्भुत पुरुषार्थ | भीष्म के आदेश से युधिष्ठिर का उन पर आक्रमण | कौरव-पांडव सैनिकों का भीषण युद्ध | कौरव-पांडव महारथियों के द्वन्द्वयुद्ध का वर्णन | भीष्म का अद्भुत पराक्रम | उभय पक्ष की सेनाओं का युद्ध तथा दु:शासन का पराक्रम | अर्जुन के द्वारा भीष्म का मूर्च्छित होना | भीष्म द्वारा पांडव सेना का भीषण संहार | अर्जुन का भीष्म को रथ से गिराना | शरशय्या पर स्थित भीष्म के पास ऋषियों का आगमन | भीष्म द्वारा उत्तरायण की प्रतीक्षा कर प्राण धारण करना | भीष्म की महत्ता | अर्जुन द्वारा भीष्म को तकिया देना | उभय पक्ष की सेनाओं का अपने शिबिर में जाना एवं कृष्ण-युधिष्ठिर संवाद | अर्जुन द्वारा भीष्म की प्यास बुझाना | अर्जुन की प्रसंशा कर भीष्म का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना | भीष्म और कर्ण का रहस्यमय संवाद

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः