भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 7

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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3.प्रमुख टीकाकार

परमात्मा इस संसार का बनाने वाला है और स्वयं परमात्मा से ही यह संसार बना भी हुआ है। आत्मा और शरीर की उपमा संसार की ईश्वर पर पूर्ण निर्भरता को सूचित करने के लिय प्रयुक्त की गई है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि शरीर आत्मा पर निर्भर होता है। यह संसार केवल ईश्वर का शरीर नहीं है, अपितु उसका अवशिष्ट भाग है, ईश्वरस्य शेषः, और यह वाक्यांश संसार की पूर्ण पराश्रितता और गौणता का सूचक है।

सब प्रकार की चेतना में यह पूर्वधारणा विद्यमान है कि एक कर्ता होगा और एक कर्म हो; और यह उस चेतना से भिन्न है, जिसे रामानुज ने आश्रित तत्त्व[1]माना है, जो स्वयं बाहर निकल पाने में समर्थ है। अहं[2] अवास्तविक नहीं है और मुक्ति की दशा में वह लुप्त नहीं हो जाता। उपनिषद के प्रसंग, तत् त्वम् असि, ‘वह तू है’ का अर्थ यह है कि “ईश्वर मैं स्वयं हूँ;” ठीक उसी प्रकार, जैसे मेरी आत्मा मेरे शरीर का आत्म है। परमात्मा आत्मा को संभालने वाला, उसका नियन्त्रण करने वाला मूल तत्त्व है; ठीक उसी प्रकार जैसे आत्मा शरीर को संभालने वाला मूल तत्त्व है। परमात्मा एक हैं; इसलिए नहीं कि दोनों ठीक एक ही वस्तु हैं, बल्कि इसलिए कि परमात्मा आत्मा के अन्दर निवास करता है और उसके अन्दर तक प्रविष्ट हुआ है। वह आन्तरिक मार्गदर्शक है, अन्तर्यामी, जो आत्मा के अन्दर खूब गहराई में निवास करता है और इस रूप में उसके जीवन का मूल तत्त्व है। परन्तु अन्तर्व्‍यापिता तद्रूपदा[3] नहीं है। काल और शाश्वतता, दोनों में ही जीव स्रष्टा से पृथक रहता है।
रामानुज ने गीता पर अपनी टीका में एक प्रकार का वैयक्तिक रहस्यवाद विकसित किया है। मानवीय आत्मा के सुगुप्त स्थानों में परमात्मा निवास करता है; परन्तु आत्मा उसे तब तक पहचान नहीं पाती, जब तक आत्मा को मुक्तिदायक ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता। यह मुक्तिदायक ज्ञान हमें अपने सम्पूर्ण मन और आत्मा द्वारा परमात्मा की सेवा करने से प्राप्त हो सकता है। पूर्ण विश्वास केवल उन लोगों के लिए सम्भव है, जिन्हें दैवीय कृपा इसके लिए वरण कर[4] लेती है। रामानुज यह स्वीकार करता है कि गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म इन तीनों का वर्णन है। परन्तु उसका मत है कि गीता का मुख्य बल भक्ति पर है। रामानुज ने पाप की घृणितता, भगवान को पाने की तीव्र लालसा, परमात्मा के सर्वविजयी प्रेम में विश्वास और श्रद्धा की अनुभूति और ईश्वर द्वारा वरण कर लिए जाने की अनुभूति पर ज़ोर दिया है।
रामानुज के लिए भगवान विष्णु है। वही केवल एकमात्र सच्चा देवता है, जिसके दिव्य गौरव में अन्य कोई साझी नहीं है। मुक्ति वैकुण्ठ या स्वर्ग में परमात्मा की सेवा और साहचर्य का नाम है।
मध्व ने [5] भगवद्गीता पर दो ग्रन्थ ‘गीताभाव्य’ और ‘गीता-तात्पर्य’ लिखे। उसने गीता में से द्वैतवाद के सिद्धान्त खोज निकालने का प्रयत्न किया है। उसका कथन है कि आत्मा को एक अर्थ में परमात्मा के साथ तद् रूप मानना और दूसरे अर्थ में उससे भिन्न मानना आत्म-विरोधी बातें हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धर्मभूत द्रव्य
  2. जीव
  3. तादात्म्य
  4. चुन
  5. ईसवी सन् 1199-1276 तक

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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