भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 15

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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4.सर्वोच्च वास्तविकता

वास्तविक भगवान विश्व के ऊपर उठा हुआ सनातन स्थानातीत और कालातीत ब्रह्म है, जो स्थान और काल में इस दृश्यमान विश्व को संभाले हुए है। वह सार्वभौम आत्मा है परमात्मा, जो विश्व के रूपों और गतियों की आत्मा है। वह परमेश्वर है, जो व्यक्तिगत आत्माओं और प्रकृति की गतियों का अध्यक्ष है और विश्व के अस्तित्व का नियन्त्रण करता है। वह पुरुषोत्तम भी है, सर्वोच्च पुरुष, जिसकी द्विविध प्रकृति विश्व के विकास में व्यक्त होती है। वह हमारे अस्तित्व को पूर्ण कर देता है; हमारी बुद्धि को प्रकाशित करता है और उसकी गुप्त कमानियों को गतिमान कर देता है।[1]

पुरुषोत्तम से लेकर नीचे तक सब वस्तुएं सत और असत की द्वैतता का अंग हैं, यहाँ तक कि परमात्मा तक में भी निषेधात्मकता या माया का तत्त्व विद्यमान है, भले ही वह उसका नियन्त्रण क्यों न करता हो। वह अपनी सक्रिय प्रकृति (स्वां प्रकृति) को सामने लाता है और उन आत्माओं का नियन्त्रण करता है, जो अपनी-अपनी प्रकृति द्वारा निर्धारित दिशाओं में अपनी भवितव्यता को पूरा कर रही हैं। एक ओर जहाँ यह सब काम भगवान इस संसार में प्रयुक्त की जा रही निजी शक्ति द्वारा करता है, वहाँ दूसरी ओर उसका एक और पक्ष है, जो इस सबसे बिलकुल अछूता रहता है। वह अवैयक्तिक, परम और साथ ही साथ अन्तर्व्‍यापी संकल्प है। वह सबका कारण है, पर उसका कोई कारण नहीं है। वह सबको गति देने वाला है, पर उसे गति देने वाला कोई नहीं। मनुष्य और प्रकृति में निवास करने वाला भगवान इन दोनों से अधिक महान है। सीमाहीन स्थान और काल में रखा यह असीम विश्व उसके अन्दर विश्राम कर रहा है, पर परमात्मा इसमें विश्राम नहीं कर रहा। [2]गीता के परमात्मा को विश्व की प्रक्रिया के साथ एकरूप नहीं समझा जा सकता, क्योंकि वह इससे परे है। [3]इस संसार में भी वह अपने कुछ पक्षों में अधिक व्यक्त है, और कुछ में कम। सर्वेश्वरवाद का हीनतर अर्थ में आरोप गीता के दृष्टिकोण पर नहीं किया जा सकता। [4]जहाँ यह ठीक है कि वास्तविकता एक ही है, जो सर्वोच्च रूप से पूर्ण है, वहाँ प्रत्येक वस्तु, जो सुनिर्दिष्ट और वास्तविक है, उतने ही समान रूप से पूर्ण नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वह अज्ञानियों को ज्ञान का प्रकाश देता है, निर्बलों को शक्ति का बल देता है, पापियों को क्षमा की मुक्ति देता है, दुःखियों को दया की शान्ति देता है, बेचैनों को चैन देता है...ज्ञानम् अज्ञानानां, शक्तिरशक्तानाम्, क्षमा सापराधानाम् कृपा दुःखिनाम्, वात्सल्यं सदोषानाम्, शील मन्दानाम् आर्जवं कुटिलानाम्, सौहाद्र्य दुष्टाहृदयानाम्, मार्दवं विश्‍लेषभीरूणाम्। साथ ही तुलना कीजिएः “तू सुख और आनन्द है, तू शान्ति का धाम है; तू प्राणियों के दुःख का नाश करता है और उन्हें सुख देता है।”

    आनन्दामृतरूपस्त्वं त्वं च शान्तिनिकेतनम्।
    हरसि प्राणिना दुःख विदधासि सदा सुखम्॥
    “तू अशक्तों का आश्रयदाता है और पापियों का त्राता है।”
    दीनानां शरण त्वं हि, पापिनां मुक्तसाधनम्।

    इसे भी देखेः “तू जो तेजस्वी है, मुझे भी तेज से भर दे; ते जो वीर्यवान है, मुझे वीर्ययुक्त कर देः तू जो बलयुक्त है, मुझे भी बल दे; तू जो ओजस्वी है, मुझे भी ओजमय कर दे; तू जो (अनुचित के विरुद्ध) रोष से परिपूर्ण है, मुझमें भी वह रोष भर दे; तू जो सहनशील है, मुझे भी सहनशीलता से भर दे।” तेजोऽसि तेजो मयि धेहि, वीर्यम् असि वीर्यम् मयि धेहि, बलम् असि बल मयि धेहि, ओजोऽसि ओजो मयि धेहि, मन्युरसि मन्युं मयि धेहि, सहोऽसि सहो मयि धेहि। शुक्ल यजुर्वेद, 19, 9

  2. 9, 6, 10
  3. 10, 41-42
  4. 10, 21-37

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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