भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 13

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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4.सर्वोच्च वास्तविकता

एक यान्त्रिक जगत की तुलना में उसका दूसरा विकल्प जोखिम और अभियान का जगत है। यदि ग़लतियों, कुरुपता और बुराई की सब प्रवृत्तियों का वर्जन कर देना हो, तो सत्य, शिव और सुन्दर की खोज हो ही नहीं सकती। यदि सत्य, सुन्दर और शिव के इन आदर्शों की सचेत कामना होनी हो, तो उनके विरोधी मिथ्या, कुरुपता और बुराई को केवल अव्यक्त सम्भावना नहीं रहना होगा, अपितु वे ऐसी सकारात्मक प्रवृत्तियां होंगी, जिनका हमें प्रतिरोध करना है। गीता के लिए यह संसार अच्छाई और बुराई के मध्य होने वाले एक सक्रिय संघर्ष की भूमि है, जिसमें परमात्मा की गहरी दिलचस्पी है। वह अपने प्रेम की सम्पत्ति उन मनुष्यों की सहायता करने के लिए लुटाता है, जो उन सब वस्तुओं का प्रतिरोध करते हैं, जो मिथ्या, कुरुपता और बुराई को जन्म देती हैं। क्योंकि परमात्मा पूर्णतया अच्छा है और उसका प्रेम असीम है, इसलिए वह संसार के कष्टों के सम्बन्ध में चिन्तित है। परमात्मा सर्वशक्तिमान है, क्योंकि उसकी शक्ति की कोई बाह्य सीमाएं नहीं हैं। संसार की सामाजिक प्रकृति परमात्मा पर नहीं थोपी गई, अपितु वह परमात्मा की इच्छा से बनी है। इस प्रश्न के उत्तर में कि क्या परमात्मा अपनी सर्वज्ञता से इस बात को पहले से जान सकता है कि मनुष्य किस ढंग से आचरण करेंगे और वे कर्म का चुनाव कर पाने की स्वतन्त्रता का सदुपयोग या दुरुपयोग करेंगे, हम केवल यह कह सकते हैं कि परमात्मा जिस वस्तु को नहीं जानता, वह सत्य नहीं है।
वह जानता हैं कि प्रवृत्तियां अनिर्धारित हैं और जब वे वास्तविक रूप धारण कर लेता है, तो उसे उनका ज्ञान हो जाता है। कर्म का सिद्धान्त परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता को सीमित नहीं करता। हिन्दू विचारक ऋग्वेद की रचना के काल तक में प्रकृति की तर्कसंगतता और नियमपरायणता को जानते थे। ऋत या व्यवस्था सब वस्तुओं में विद्यमान है। नियम का राज्य परमात्मा की इच्छा और संकल्प है और इसलिए उसे परमात्मा की शक्ति की सीमा नहीं माना जा सकता। संसार के व्यक्तिक (सगुण) स्वामी का एक कालमय पक्ष है, जिसमें परिवर्तन होते रहते हैं।
गीता में वैयक्तिक परमात्मा के रूप में भगवान पर बल दिया गया है, जो अपनी प्रकृति में इस अनुभवगम्य संसार का सृजन करता है। वह प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करता है।[1]वह सब बलियों का आनन्द देने वाला और स्वामी है।[2]वह हमारे हृदय में भक्ति जताता है और हमारी प्रार्थनाओं को पूर्ण करता है।[3]वह सब मान्यताओं का मूल स्त्रोत और उन्हें बनाए रखने वाला है। पूजा और प्रार्थना के समय उसका हमसे व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित होता है।

वैयक्तिक ईश्वर इस विश्व की सृष्टि, रक्षा और संहार करता है।[4]भगवान की दो प्रकृतियां हैं - एक उच्चतर (परा) और दूसरी निम्नतर (अपरा)।[5]जीवित आत्माएं उच्चतर प्रकृति का प्रतिनिधत्व करती हैं और भौतिक माध्यम निम्नतर प्रकृति का प्रतिनिधि है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18, 61
  2. 9, 42
  3. 7, 22
  4. जैकब बोएहमी से तुलना कीजिएः “सृष्टि पिता का कार्य थी। अवतार पुत्र का काम था, जबकि सृष्टि का अन्त पवित्र आत्मा के कार्य द्वारा होगा।”
  5. 7, 4-5

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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