भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 92

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास
योग की अन्तर्दृष्टि

  
39. एषा तऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्धध्या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥

(39)हे पार्थ (अर्जुन), यह मैंने तुझे सांख्य का ज्ञान बताया है। अब तू योग का ज्ञान सुन। इस ज्ञान को ग्रहण करके तू कर्म के बन्धनों को परे फेंक देगा। गीता में साख्य शब्द से अभिप्राय सांख्यदर्शन की प्रणाली से नहीं है और न योग का ही अर्थ पातंजल योग है। सांख्य के दार्शनिक सम्प्रदाय में स्पष्ट रूप ल्यूथर से तुलना कीजएः ’’और भले ही वे हमारा जीवन, वस्तुएँ प्रतिष्ठा, बच्चे और स्त्री, सब-कुछ छीन लें, फिर भी उनका लाभ थोड़ा ही है; ये सब वस्तुएं विनष्ट हो जाएंगी, परन्तु परमात्मा का नगर फिर भी बना रहेगा।’’ से पुरुश (आत्मा ) और प्रकृति (अनात्मा) के द्वैत को स्थापित किया गया है, परन्तु गीता उसके ऊपर उठ गई है और इसमें एक परमात्मा की वास्तविकता का प्रतिपादन किया गया है, जो सबका स्वामी है। सांख्य अपरिवर्तनशील परमात्मा की स्फुरणा का बौद्धिक विवरण प्रस्तुत करता है। [1]यह ज्ञानयोग है। कार्य का योग कर्मयोग है। देखिए 3, 3। अब तक जिस ज्ञान पर और इच्छा के परित्याग पर जोर देता है और योग कर्म पर 1 जो इस बात को जानता है कि आत्मा और शरीर पृथक् हैं, कि आत्मा अविनश्वर है और संसार की घटनाओं से विचलित नहीं होता, उसे किस प्रकार का आचरण करना चाहिए? यहाँ पर गुरु कृष्ण बुद्धियोग का, अर्थात् बुद्धि या समझ को एकाग्र करने का, विकास करता है। बुद्धि केवल धारणाओं को बचाने की क्षमता-भर नहीं है। इसे पहचानने और वस्तुओं में विभेद करने का कार्य करना पड़ता है। समझ या बुद्धि को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि उससे अन्तदृ्ष्टि, स्थिरता और समता (अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु में समत्व का भाव) प्राप्त हो सके। मन का सम्बन्ध इन्द्रियों से हो, इसके बजाय मन को बुद्धि द्वारा मार्ग दिखाया जाना चाहिए, जो कि मन की अपेक्षा उच्चतर है। 3,42। मन को बुद्धि के साथ जोड़ा जाना चाहिए (बुद्धियुक्त)।
यहाँ शास्त्रीय सांख्यदर्शन का, जो कि गीता के समय निर्माण की दशा में था, प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। इसके अनुसार पुरुष निष्क्रिय है और वस्तुतः उसका बन्धन और मुक्ति से कोई वास्ता नहीं है। बन्धन और मोक्ष मूलतः बुद्धि के कार्य हैं। यह बुद्धि चौबीस मूल तत्त्वों में से एक है। प्रकृति में से क्रमशः भौतिक तत्त्व की पांच तात्विक दशाओं का- आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी का- और भौतिक तत्त्व के पांच सूक्ष्य गुणों का- शब्द, स्पर्श, रूप,स्वाद, गन्ध का- और तथा बुद्धि या महत् का, जो ज्ञान और संकल्प का विभेदक तत्त्व है तथा अंहकार या ’मैं’ की भावना का और दसों इन्द्रिय-सम्बन्धी कृत्यों-पांच ज्ञानेन्द्रियों और पांच कर्मेन्द्रियों के कृत्यों- के साथ मन का विकास होता है। जब बुद्धि पुरुष प्रकृति के भेद को हृदयंगम कर लेती है, तब मुक्ति प्राप्त हो जाती है। इस दृष्टिकोण को गीता के ईश्वरवाद के अनुकूल ढाल लिया गया है। बुद्धि शरीर-रूपी रथ का सारथी है। इस रथ को इन्द्रियों के घोडे़ खींच रहे हैं, जिनकी रासों को मन संभाले हुए है। आत्मा बुद्धि के ऊपर है, परन्तु वह केवल निष्क्रिय साक्षीमात्र है। कठोपनिषद् में बुद्धि को सारथी बताया गया है, जो मन द्वारा इन्द्रियों का नियन्त्रण करती है और उसे आत्मा को जानने में समर्थ बनाती है। [2] यदि बुद्धि आत्मा की चेतना से प्रकाशित हो उठे और उसे अपने जीवन का प्रेरक प्रकाश बना ले, तो उसका मार्गदर्शन विश्व के प्रयोजन के साथ समस्वर हो जाएगा। यदि आत्मा का प्रकाश बुद्धि में समुचित रूप से प्रतिफलित होता हो, अर्थात् यदि बुद्धि सब मलिन करने वाली प्रवृत्तियों से स्वच्छ कर दी जाए तो वह प्रकाश विकृत नहीं होगा और बुद्धि का आत्मा के साथ मेल रहेगा। अंहकार और पृथकत्व की भावनाएं उस समस्वरता के दर्शन से समाप्त हो जाएंगी। जिसमें प्रत्येक वस्तु सबमें और सब वस्तुएं प्रत्येक में विद्यमान हैं। गीता में सांख्य और योग परस्पर बेमेल प्रणालियां नहीं हैं। उनका उद्देश्य एक ही है, परन्तु उनकी पद्धतियां भिन्न हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस बात को प्रकट करने के लिए मध्य ने व्यास को उद्धृत किया है। शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते। तुलना कीजिएः श्वेताश्वतर उपनिषद्ः सांख्ययोगाधिकम्यम्। 6,13
  2. 3,3

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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