भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास (39)हे पार्थ (अर्जुन), यह मैंने तुझे सांख्य का ज्ञान बताया है। अब तू योग का ज्ञान सुन। इस ज्ञान को ग्रहण करके तू कर्म के बन्धनों को परे फेंक देगा। गीता में साख्य शब्द से अभिप्राय सांख्यदर्शन की प्रणाली से नहीं है और न योग का ही अर्थ पातंजल योग है। सांख्य के दार्शनिक सम्प्रदाय में स्पष्ट रूप ल्यूथर से तुलना कीजएः ’’और भले ही वे हमारा जीवन, वस्तुएँ प्रतिष्ठा, बच्चे और स्त्री, सब-कुछ छीन लें, फिर भी उनका लाभ थोड़ा ही है; ये सब वस्तुएं विनष्ट हो जाएंगी, परन्तु परमात्मा का नगर फिर भी बना रहेगा।’’ से पुरुश (आत्मा ) और प्रकृति (अनात्मा) के द्वैत को स्थापित किया गया है, परन्तु गीता उसके ऊपर उठ गई है और इसमें एक परमात्मा की वास्तविकता का प्रतिपादन किया गया है, जो सबका स्वामी है। सांख्य अपरिवर्तनशील परमात्मा की स्फुरणा का बौद्धिक विवरण प्रस्तुत करता है। [1]यह ज्ञानयोग है। कार्य का योग कर्मयोग है। देखिए 3, 3। अब तक जिस ज्ञान पर और इच्छा के परित्याग पर जोर देता है और योग कर्म पर 1 जो इस बात को जानता है कि आत्मा और शरीर पृथक् हैं, कि आत्मा अविनश्वर है और संसार की घटनाओं से विचलित नहीं होता, उसे किस प्रकार का आचरण करना चाहिए? यहाँ पर गुरु कृष्ण बुद्धियोग का, अर्थात् बुद्धि या समझ को एकाग्र करने का, विकास करता है। बुद्धि केवल धारणाओं को बचाने की क्षमता-भर नहीं है। इसे पहचानने और वस्तुओं में विभेद करने का कार्य करना पड़ता है। समझ या बुद्धि को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि उससे अन्तदृ्ष्टि, स्थिरता और समता (अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु में समत्व का भाव) प्राप्त हो सके। मन का सम्बन्ध इन्द्रियों से हो, इसके बजाय मन को बुद्धि द्वारा मार्ग दिखाया जाना चाहिए, जो कि मन की अपेक्षा उच्चतर है। 3,42। मन को बुद्धि के साथ जोड़ा जाना चाहिए (बुद्धियुक्त)।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस बात को प्रकट करने के लिए मध्य ने व्यास को उद्धृत किया है। शुद्धात्मतत्त्वविज्ञानं सांख्यमित्यभिधीयते। तुलना कीजिएः श्वेताश्वतर उपनिषद्ः सांख्ययोगाधिकम्यम्। 6,13
- ↑ 3,3
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