भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 89

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

  
28. अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्त्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

(28)सब प्राणियों का आदि या आरम्भ अप्रकट है। उनका मध्यभाग प्रकट है और उनका अन्त फिर अप्रकट है। हे अर्जुन, इसमें विलाप करने की क्या बात है?

29. आश्यर्चवत्पश्यति कश्चिदेन -माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येन वेद न चैव कश्चित् ॥

(29)कोई उसे एक अद्भुत वस्तु के रूप में देख पाता है। कोई दूसरा उसका वर्णन एक अद्भुत वस्तु के रूप में करता है और कोई अन्य एक अद्भुत वस्तु के रूप में उसे सुनता है; पर सुनकर भी उसे कोई जान नहीं पाता। यद्यपि आत्मा के सत्य तक पहुँचने के लिए सब लोग स्वतन्त्र हैं, फिर भी उस तक केवल वे बहुत थोडे़-से लोग पहुच पाते हैं, जो उसका मूल्य आत्म-अनुशासन, स्थिरता और वैराग्य के रूप में देने को तैयार रहते हैं। यद्यपि सत्य तक पहुँचने का मार्ग सबके लिए खुला है, फिर भी हममें से अनेक को उसे खोजने के लिए कोई प्रेरणा ही अनुभव नहीं होती। जिनको प्रेरणा अनुभव होती है, उनमें से अनेक संशय और दुविधा के शिकार रहते हैं। जिन लोगों को कोई संशय नहीं भी होती, उनमें से भी अनेक कठिनाइयों से डर जाते हैं। केवल कुछ विरली आत्माएं ही संकटों का सामना करने और लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो पाती हैं। कठोपनिषद् से तुलना कीजिए, 2,7। ’’जब व्यक्ति उसे देख भी लेता है, सुन भी लेता है और उसके बारे में घोषणा भी कर देता है, तब भी उसे कोई समझ नहीं पाता।’’- शंकराचार्य।

30. देही नित्यमवध्योअयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

(30)हे भारत (अर्जुन), सबके शरीर में निवास करने वाला (आत्मा) शाश्वत है और वह कभी मारा नहीं जा सकता। अतः तुझे किसी प्राणी के लिए शोक नहीं करना चाहिए। मनुष्य आत्मा का,जो कि अमर है,और शरीर का, जो कि मरणशील है, समाप्त है। यदि हम यह भी मान लें कि शरीर स्वभावतः मरणशील है, तो भी क्यों कि वह आत्मा के हितों की रक्षा का साधन है, इसलिए उसकी भी सुरक्षा की जानी चाहिए। अपने-आप में यह कोई सन्तोष जनक युक्ति नहीं है, इसलिए कृष्ण योद्धा के रूप में कर्तव्य का उल्लेख करता है। कर्तव्‍य-भावना को जगाने का प्रयास

31. स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्मायाद्धि युद्धाच्छेयोअन्त्क्षत्रिस्य न विद्यते ॥

(31)इसके अतिरिक्त अपने कर्तव्य का ध्यान करते हुए भी तुझे विचलित नहीं होना चाहिए। क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई कर्त्तव्य नहीं है। उसका स्वधर्म अर्थात् कर्म का नियम उससे युद्ध में लड़ने में मांग करता है। यदि आवश्यकता हो, तो सत्य की रक्षा के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का सामाजिक कर्त्तव्य है। संन्यास उसका कर्त्तव्य नहीं है। उसका कर्त्तव्य शक्ति के प्रयोग द्वारा व्यवस्था बनाए रखना है, ’सिर घुटाकर’ साधु बन जाना नहीं।[1]कृष्ण अर्जुन को बतलाता है कि योद्धाओं के लिए न्यायोचित युद्ध से अधिक अच्छा कोई कर्त्तव्य नहीं है। यह एक ऐसा विशेषाधिकार है,जो सीधा स्वर्ग ले जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत से तुलना कीजिएः दण्ड एव हि राजेन्द्र क्षत्रधर्मो न मुण्डनम्। -शान्तिपर्व, 23,46। ’’जो विनाश से रक्षा करता है, वह क्षत्रिय है।’’ क्षताद्र यो वै त्रायतीति स तस्मात्क्षत्रियः स्मृतः।- महाभारत, 12,29,138।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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