भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 8

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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3.प्रमुख टीकाकार

जीव और परमात्मा को शाश्वत रूप से एक-दूसरे से पृथक माना जाना चाहिए, और उन दोनों में आंशिक या पूर्ण एकता का किसी प्रकार समर्थन नहीं किया जा सकता। ‘वह तू है’ इस प्रसंग की व्याख्या वह यह अर्थ बताकर करता है कि हमें मेरे और तेरे के भेदभाव को त्याग देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान के नियन्त्रण के अधीन है।[1] माध्व का मत है कि गीता में भक्ति-पद्धति पर बल दिया गया है।
निम्बार्क[2] ने द्वैताद्वैत के सिद्धान्त को अपनाया है। उसने ‘ब्रह्मसूत्र’ पर भी टीका लिखी और उसके शिष्य केशव कश्मीरी ने गीता पर एक टीका लिखी, जिसका नाम ‘तत्त्वप्रकाशिका’ है। निम्बार्क का मत है कि आत्मा[3], संसार[4] और परमात्मा एक-दूसरे से भिन्न हैं। फिर भी आत्मा और संसार का अस्तित्व और गतिविधि परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है। निम्बार्क की रचनाओं का मुख्य वर्ण्य-विषय भगवान की भक्ति है।
वल्लभाचार्य[5] ने उस मत का विकास किया, जिसे शुद्धाद्वैत कहा जाता है। जीव, जब वह शुद्ध अवस्था में होता है और माया द्वारा अन्धा हुआ नहीं रहता, और परब्रह्म एक ही वस्तु हैं। आत्माएं ईश्वर का ही अंश हैं, जैसे चिनगारियां अग्नि का अंश होती हैं, और वे भगवान की कृपा के बिना मुक्ति पाने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकतीं। मुक्ति पाने का सबसे महत्त्वपूर्ण साधन भगवान की भक्ति है। भक्ति प्रेम मिश्रित धर्म है।[6]
गीता पर और भी अनेक टीकाकारों ने और हमारे अपने समय में 'बालगंगाधर तिलक' और 'श्री अरविन्द' ने भी टीकाएं लिखी हैं। गीता पर गांधी जी के अपने अलग विचार हैं।
सामान्यतया यह माना जाता है कि व्याख्याओं में अन्तर व्याख्याकार द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण के कारण है। हिन्दू परम्परा का यह विश्वास है कि ये विभिन्न दृष्टिकोण एक-दूसरे के पूरक हैं। भारतीय दर्शनशास्त्र की प्रणालियां भी अलग-अलग दृष्टिकोण या दर्शन ही हैं, जो एक-दूसरे के पूरक हैं और विरोधी नहीं। भागवत में कहा गया है कि ऋषियों ने मूल तत्त्वों का ही वर्णन अनेक रूपों में किया है।[7] एक लोकप्रिय श्लोक में, जो हनुमान रचित माना जाता है, कहा गया हैः “शरीर के दृष्टिकोण से मैं तेरा सेवक हूँ, जीव के दृष्टिकोण से मैं तेरा अंग हूँ और आत्मा के दृष्टिकोण से मैं स्वयं तू ही हूँ; यह मेरा दृढ़ विश्वास है।”[8] परमात्मा का अनुभव उस स्तर के अनुसार ‘तू’ यह ‘मैं’ के रूप में होता है, जिसमें कि चेतना केन्द्रित रहती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मदीयं तदीयम् इति भेदम् अपहाय सर्वम् ईश्वराधीनम् इति स्थितिः। भागवत-तात्पर्य।
  2. ईसवी सन 1162
  3. जीव
  4. जगत
  5. ईसवी सन 1479
  6. प्रेमलक्षणा श्रद्धा। अमृत-तरंगिणी।
  7. “इति नानाप्रसंख्यानं तत्त्वानां कविभिः कृतम्।”
  8. देहबुद्धया तु दासोऽहं, जीवबुद्धया त्वदंशकः।
    आत्मबुद्धया त्वमेवाहमिति मे निश्चिता मतिः॥
    चतुर्थ पाद में पाठभेद हैः ‘इति वेदान्तडिण्डिमः’ – अनुवादक साथ ही देखिए आनन्दगिरि का ‘शंकरदिग्विजय’।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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