भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 62

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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13.वास्तविक लक्ष्य

गीता इस बात को स्वीकार करती है कि वास्तविकता तो परब्रह्म है, परन्तु विश्व के दृष्टिकोण से वह सर्वोच्च ईश्वर है। सर्वाच्‍च ईश्वर ही एकमात्र वह रूप है, जिसमें मनुष्य का विचार,क्योंकि वह सीमित है, सर्वोच्च वास्तविकता की कल्पना कर सकता है। यद्यपि इन दोनों में परस्पर क्या सम्बन्ध है, यह तार्किक दृष्टिकोण से समझ पाना हमारे लिये सम्भव नहीं है, परन्तु जब हम वास्तविकता का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करते हैं, तब यह समझ में आ जाता है। इसी प्रकार मुक्ति की अन्तिम दशा के सम्बन्ध में बताए गए दो दृष्टिकोण एक ही दशा के अन्तःस्फुरणात्मक और बौद्धिक, दो रूप हैं। मुक्त आत्माओं को पृथक् व्यक्तित्व की कोई आवश्यकता नहीं होती, लेकिन फिर भी वे अपने-अपने को सीमित करके इसे धारण करती हैं। इस विषय में दोनों मत एक हैं कि जब तक मुक्त आत्माएं संसार में जीती रहती हैं, वे किसी न-किसी प्रकार का कर्म करती रहती हैं। वे आत्मिक स्वतन्त्रता के साथ और एक आन्तरिक आन्नद और शान्ति के साथ कार्य करती हैं- जिस आनन्द और शान्ति का स्त्रोत या उसका बना रहना किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है।
गीता में ब्रह्मलोक या परमात्मा या परमात्मा के संसार को अपने-आप में शाश्वत नहीं बताया गया, अपितु वह प्रकटन ( अभिव्यक्ति) की दूरतम सीमा है। आनन्द हमारे विकास की सीमा है और हम विज्ञान के स्तर से ऊपर उठकर उस तक पहुँचते हैं। इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्डीय अभिव्यक्ति से है। परम तत्त्व आनन्दमय आत्मा नहीं है, न ईश्वरीय बना हुआ आत्मा ही है।[1] विशुद्ध आत्मा पंचकोशों से भिन्न है।[2] जब ब्रह्माण्ड का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है, जब परमात्मा का राज्य स्थापित हो जाता है, जब पृथ्वी पर भी भगवान् का राज्य वैसा ही होता है, जैसा कि वह स्वर्ग में है, जब सब व्यक्ति आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं और उस स्तर से ऊपर उठ जाते हैं, जिसमें कि जन्म और मरण होते हैं, तब यह ब्रह्माण्डीय प्रक्रिया उस रूप में पहुँचा दी जाती है, जो सब अभिव्यक्तियों से परे है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह आनन्दमय आत्मा भी सर्वोच्च आत्मा नहीं है, क्यों कि यह भी परिस्थितियों के वशीभूत है और यह प्रकृति का ही सुधरा हुआ रूप है। यह एक परिणाम है और अच्छे कर्मोें के सब परिणामों का सार है। - विवेकचूड़ामणि, 212
  2. पंच्चकोशविलक्षणः।- विवेकचूड़ामणि, 214

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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