भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 59

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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12.कर्ममार्ग

कार्य साधन के रूप में नहीं किया जाता, अपितु वह एक लक्षण बन जाता हैं जब हम संन्यास आश्रम ग्रहण कर लेते हैं, तब भी अन्य आश्रमों के कर्त्तव्य का तो छूट जाते हैं, परन्तु संन्यास आश्रम के कर्त्तव्य नहीं छूटते। सामान्य गुण (साधारण धर्म)-जिनका पालन करना सबके लिए आवश्यक है, जैसे दया का आचरण- अपनाए ही जाते हैं। इस प्रकार कर्म और मुक्ति एक-दूसरे से असंगत नहीं हैं। [1]

गीता ने उन अनेक सम्प्रदायों और संहिताओं को अपना लिया है, जो उससे पहले ही एक-दूसरे से होड़ कर रही थीं, और उनको प्यार एक ऐसे धर्म के पहलुओं के रूप में रूपान्तरित कर दिया है, जो कहीं अधिक आन्तरिक, स्वतन्त्र सू़क्ष्म और गम्भीर है। यदि लोकप्रिय देवताओं की पूजा की जानी है, तो यह भी साथ ही समझ लेना होगा कि वे केवल एक ही भगवान् के विविध रूप -मात्र है। यदि बलियां दी जानी हैं, तो वे आत्मिक होनी चाहिये, भौतिक पदार्थां की नहीं। आत्मसंयम की जीवन या अनासक्त कर्म यज्ञ है। वेद उपयोगी है, परन्तु गीता के उपदेश के विस्तृत जलप्लावन की तुलना में वह एक पोखर के समान है।
गीता ब्रह्म और आत्मा के उस सिद्धान्त का उपदेश देती है, जिसे उपनिषदों के अनुयायी खोजते हैं, परन्तु भगवान् योगेश्वर है। सांख्य का द्वैतवाद के रूप में अपना लिया गया है, क्यों कि पुरुष और प्रकृति सर्वोच्च स्वामी पुरुषोत्तम के ही दो स्वभाव हैं। वही एक है, जो दया प्रदान करता है। वही भक्ति का सच्चा विषय है। उसी के लिए सब काम किया जाना चाहिए। उद्धार करने चाहिए, क्यों कि उन्हें उसने ही स्थापित किया है और वही नैतिक व्यवस्था को बनाए रखता हैं नियम अपने-आप में कोई साध्य नहीं है, क्यों कि अन्तिम लक्ष्य तो भगवान् के साथ ऐक्य स्थापित करना है। गीता का गुरु उस समय प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों में मेल स्थापित करता है और हमारे सम्मुख एक ऐसी सर्वांग-सम्पूर्ण शान्ति-योजना प्रस्तुत करता है, जो स्थानीय और अस्थायी नहीं है, अपितु सब कालों और सब मनुष्यों के लिये है। वह बाह्म विधियों या कट्टर सिद्धान्तात्मक धारणाओं पर जोर नहीं देता, अपितु मानव-स्वभाव और अस्तित्व के मूलभूत सिद्धान्तों और महान् तथ्यों पर बल देता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मण्डन मिश्र ने अपनी पुस्तक ’ब्रह्मसिद्धि’ में कर्म और ज्ञान के सम्बन्ध के विषय में सात विभिन्न मतों का उल्लेख किया हैः (1) वेद के कर्मकाण्ड में बताई गई विधियां मनुष्यों को उनकी स्वाभाविक गतिविधियों से विमुख करके चिन्तनात्मक गतिविधि की ओर ले जाती हैं, जो आत्मज्ञान के लिये आवश्यक बताई गई है; (2) ये विधियां उपभोग की प्रक्रिया द्वारा इच्छाओं का नाश करने के लिये बनाई गई हैं और इस प्रकार ये चिन्तन के लिए वह मार्ग तैयार करती हैं, जो आत्मज्ञान की ओर ले जाता है; (3) कर्म का पालन करना तीन ऋणों (ऋणत्रय) से उऋण होने के लिये आवश्यक है, जो आत्मज्ञान के लिए पहली आवश्यक शर्त है;(4) विहित विधियों का एक दूसरा प्रयोजन (संयोगपृथकत्व) है कि वे उनके द्वारा प्रत्याशित इच्छाओं को पूरा करती हैं और मनुष्य को आत्मज्ञान के लिये तैयार करती है; (5) सम्पूर्ण कर्म का उद्देश्य मनुष्यों को शुद्ध करना और उन्हें आत्मज्ञान के लिए तैयार करना है; (6) आत्मज्ञान को एक शोधक सहायक तत्त्व के रूप में समझा जाना चाहिए, जो कर्मकांड में विहित विभिन्न गतिविधियों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक है; (7) कर्म और ज्ञान एक-दूसरे के विरोधी हैं। मण्डन मिश्र का झुकाव चौथे और पांचवे दृष्टिकोणों को अपनाने की ओर है। विधियों को पूरा करना सनातन स्वतःप्रकाशित आत्मा की ज्योति की अन्तिम अभिव्यक्ति को लाने में, उपनिषदों के महावाक्यों से निकलने वाले शब्द ज्ञान की विषय-वस्तु के चिन्तन में अत्यन्त मूल्यवान् सहायक है। जहाँ संन्यासी लोग विशुद्ध चिन्तनात्मक पद्धति द्वारा स्मार्त्त विधियों को पूरा करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं, वहाँ गृहस्थ लोग विधियों इत्यादि को पूरा करने के द्वारा इस लक्ष्य तक पहुँचते हैं।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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