भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
12.कर्ममार्ग
जब अर्जुन का लम्बा विषाद फलीभूत होता है, तब उसे पता चलता है कि परमात्मा की इच्छा में ही उसकी शान्ति निहित है।[1] परमात्मा के नियन्त्रण के अधीन रहकर प्रकृति अपना काम करती रहती है। व्यक्ति की बुद्धि मन और इन्द्रियां महान् सार्वभौम प्रयोजन के लिए और उसी के प्रकाश में कार्य करती हैं। जय या पराजय उसे विचलित नहीं करती, क्योंकि वह सार्वभौम आत्मा की इच्छा से ही होती है। जो भी कुछ घटित होता है, उसे व्यक्ति राग या द्वेष के बिना स्वीकार कर लेता है। वह द्वैतों से ऊपर उठ चुका होता है (द्वन्द्वातीत)। वह उस कर्तव्य को, जिसकी उससे आशा की जाती है, कर्तव्य कर्म, व्यथा के बिना और स्वतन्त्रता तथा स्वतःस्फूर्ति के साथ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 18, 73
- ↑ ईशोपनिषद् हमसे कहती है कि हम सारे संसार को भगवान् के निवास स्थान के रूप में देखें और कर्म करते रहें, क्योंकि इस प्रकार के कर्म हमें बन्धन में नहीं डालतेः न कर्म लिप्यते नरे।
तुलना कीजिएः यः क्रियावान् स पण्डितः। महाभारत, वनपर्व, 312, 108। आनन्दगिरि ने कठोपनिषद् पर शंकराचार्य के भाष्य पर टिप्पणी करते हुए कहा है, 2, 19:विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वती नास्ति कर्तृता।
अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनकौ यथा॥प्रवाहपतितः कार्य कुर्वन्नपि न लिप्यते।
बाह्मे सर्वत्र कर्तृत्वमावहन्नति राघव॥</poem>
- ↑ “सचमुच मेरी वह सम्पत्ति असीम है, जिसमें मेरा कुछ भी नहीं है। यदि मिथिला जलकर राख हो जाए, तो भी मेरा कुछ भी नहीं जलेगा।”
अनन्तं वत् में यस्य मे नास्ति किंचन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचित् प्रदाह्मते॥ - ↑ भागवत से तुलना कीजिएः भले आदमी संसार के दुःखों के लिए कष्ट सहते हैं ‘प्रायशो लोकतापेन तप्यन्ते साधवो जनाः’। वे अपने-आप को जलाते हैं, जिससे वे संसार को प्रकाशित कर सकें।
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