भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
12.कर्ममार्ग
गीता में लोक-संग्रह अर्थात् संसार की एकता पर जो बल दिया गया है, उसकी मांग है कि हम अपने जीवन की सारी पद्धति को बदलें। हम दयालु, भले आदमी हैं, जो एक कुत्ते को भी सताए जाते देखकर विचलित और क्रुद्ध हो उठेंगे। हम किसी भी रोते हुए बच्चे या छेड़ी जाती हुई स्त्री की रक्षा के लिए दौड़कर पहुँचेंगे। फिर भी हम बहुत बड़े पैमाने पर लाखों स्त्रियों और बच्चों के प्रति अन्याय करते रहते हैं और अपने-आप को इस विश्वास द्वारा सन्तोष दे लेते हैं कि हम अपने परिवार या नगर या राज्य के प्रति अपना कर्तव्य निवाह रहे हैं। गीता में हमसे मानवीय भ्रातृत्व पर बल देने के लिए कहा गया है। शंकराचार्य ने इस बात की ओर संकेत किया है कि जहाँ कहीं भी युद्ध करने का आदेश दिया गया है, वहाँ वह आदेशात्मक (विधि) नहीं है, अपितु उस समय विद्यमान प्रथा का ही सूचक हैं।[1] गीता ऐसे उथल-पुथल के काल की रचना है, जिस प्रकार के कालों में से मानवता समय-समय पर गुज़रती रहती है, जिसमें बौद्धिक, नैतिक, सामाजिक और राजनीतिक विधान एक-दूसरे के साथ संघर्ष कर रहे होते हैं; और जब इनमें उचित रूप से समंजन नहीं होता, तब प्रचण्ड उत्पात होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तस्माद् युध्यस्वेत्यनुवादमात्रं, न विधिः, न ह्मत्र युद्धकर्त्तव्यता विधीयते। गीता पर शंकराचार्य की टीका, 2, 18
- ↑ इस वैदिक प्रार्थना से तुलना कीजिएः “यहाँ पर जो कुद भी घोर है, क्रूर है और पापमय है, वह सब शान्त हो जाए। सब वस्तुएं हमारे लिए कल्याणकारी और शान्तिपूर्ण हो जाए।”? यदिह घोरं, यदिह क्रूरं, यदिह पापम् तच्छान्तं, तच्छिवं, सर्वमेव शमस्तु नः।
- ↑ 5, 3; याज्ञवल्क्य स्मृति से भी तुलना कीजिए, जहाँ संन्यासी की दशा का वर्णन करने के बाद यह कहा गया है कि वह गृहस्थ भ, जो ज्ञान का उपासक है और सत्यभाषी है, (संन्यास ग्रहण किए बिना भी) मुक्ति प्राप्त करता है। 3, 204-5
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