भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 50

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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11.भक्तिमार्ग

“जो नारी प्रेम करती है, उसके लिए प्रेम के आवेश में प्रियतम के हृदय पर लेटना या प्रेम से प्रियतम के चरणों को सहलाना, दोनों एक-सी बातें हैं। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष के लिए चाहे वह समाधि में लीन रहे या पूजा द्वारा भगवान् की सेवा करे, दोनों एक-सी बातें हैं।”[1]भक्त के लिए उच्चतर प्रकार की स्वतन्त्रता भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण कर देने में है।[2] संसार के लिए भगवान् के कार्य में भाग लेना सब भक्तों का कर्त्तव्य है।[3] “जो लोग अपने कर्त्तव्य को छोड़ बैठते हैं और केवल ‘कृष्ण-कृष्ण कहकर भगवान् का नाम जपते हैं, वे वस्तुतः भगवान् के शत्रु हैं और पापी हैं, क्योंकि धर्म की रक्षा के लिए तो स्वयं भगवान् ने भी जन्म लिया था।”[4] जब भक्त सच्चे तौर पर अपने-आप को भगवान् के प्रति समर्पित कर देता है, तब पमात्मा उसके मन की प्रमुख वासना बन जाता है और तब भक्त जो भी कुछ करता है, वह परमात्मा के यश के लिए करता है। भगवद्गीता में भक्ति अनुभवातीत के प्रति सम्पूर्ण आत्मसर्मपण है। यह है भगवान् में विश्वास करना, उससे प्रेम करना, उसके प्रति निष्ठावान् होना और उसमें लीन हो जाना। यह अपना पुरस्कार स्वयं ही है। ऐसे भक्त में उच्चतम ज्ञान का सार और साथ ही साथ पूर्ण मनुष्य की ऊर्जा भी विद्यमान रहती है।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रियतमहृदये वा खेलतु प्रेमरीत्या,पदयुगपरिचर्या प्रेयसी व विधत्ताम्। विहरतु विदितार्थो निर्विकल्पे समाधौ, ननु भजनविधौ वा तुल्यमेतद्द्वयं स्यात्॥

  2. लीनता हरिपादाब्जे मुक्तिरित्यभिधीयते।
  3. तुलना कीजिए, मज्झिमनिकायः यो मां पस्सति स धम्मं पस्सति। जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है।
  4. .स्वधर्मकर्मविमुखाः कृष्णकृष्णेतिवादिनः।ते हरेद्र्वेषिणो मूढाः धर्मार्थ जन्म यद्धरेः॥ -विष्णुपुराण। साथ ही देखिए भगवद्गीता, 9, 30; तुलना कीजिए;। जाॅन 2, 9-11; 4 18-20; तुलना कीजिएः “वह हर कोई, जो ईसा-ईसा पुकारता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पाएगा; अपितु वह पाएगा, जो परमपिता की इच्छा के अनुसार काम करता है।”
  5. भागवत में कहा गया है कि “भगवान् वासुदेव के प्रति की गई भक्ति शीघ्र ही अकामता और ज्ञान को उत्पन्न कर देती है, जिसके द्वारा भगवान् का दर्शन प्राप्त होता है।”

    वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं यद्ब्रह्मदर्शनम्॥

    तुलना कीजिएः

    विमलमतिर्विमत्सरः प्रशान्तः सुचरितोऽखिलसत्त्वमित्रभूतः। प्रियहितवचनोऽस्तमानमायो वसति सदा हृदि यस्य वासुदेवः॥

    --विष्णुपुराण, 3, 7

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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