भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
11.भक्तिमार्ग
इस तथ्य पर ज़ोर दिया गया है कि जबकि अन्य भक्त लोग अन्य लक्ष्यों तक पहुँचते हैं, केवल वह, जो भगवान् का भक्त होता है, परम आनन्द को प्राप्त करता है।[1] जहाँ तक पूजा भक्ति के साथ की जाती है, वह हृदय को पवित्र करती है और मन को उच्चतर चेतना के लिए तैयार करती है। हर कोई भगवान् की मूर्ति अपनी इच्छाओं के अनुरूप ढाल लेता है। मरते हुए व्यक्ति के लिए परमात्मा शाश्वत जीवन है; जो लोग अन्धकार में भटक रहे है उसके लिए वह प्रकाश है।[2] जिस प्रकार क्षितिज सदा हमारी आँखों के बराबर ऊँचाई पर ही रहता है, चाहे हम कितना ही ऊँचा क्यों न पढ़ते चले जाएं, उसी प्रकार परमात्मा का स्वभाव भी हमारी अपनी चेतना के स्तर से ऊँचा नहीं हो सकता। निम्नतर स्थितियों में हम धन और जीवन के लिए प्रार्थना करते हैं, और भगवान् को भौतिक आवश्यकताओं को पूर्ण करने वाला माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 7, 21। मध्व टीका करते हुए लिखता हैः “अन्तो ब्रह्मादिभक्तानां मद्भक्तानामनन्तता।”
- ↑ तुलना कीजिएः
रूजासु नाथः परमं हि भेषजं, तमः प्रदीपा विषमेषु संक्रमः। भयेषु रक्षा व्यसनेषु बान्धवो, भवत्यगाधे विषयाम्भसि प्लवः॥
- ↑ द्रवीभावपूर्विका हि मनसो भगवदाकारता सविकल्पका वृत्तिरूपा भक्तिः।
- ↑ .“वृष्णि लोग...कृष्ण के ध्यान में लीन हो गए और अपनी पृथक् सत्ता को पूर्णतया भुला बैठे।”—भक्तिरत्नावली, 16
- ↑ एकान्तभक्तिर्गोविन्दे यत्सर्वत्र तदीक्षणम्। भागवत 7, 7, 35
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