भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 236

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-17
धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण
श्रद्धा के तीन प्रकार

   
8.आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥

जो भोजन जीवन, प्राणशक्ति, बल, स्वास्थ्य, आनन्द, और उल्लास को बढ़ाते हैं, जो मधुर, चिकनाई से युक्त, पोषक और रुचिकर होते हैं वे सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं।

9.कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥

जो भोजन तीखे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, चरपरे, रूखे और जलन उत्पन्न करने वाले होते हैं, तो जो दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने हैं, वे राजसिक लोगों को पसन्द होते हैं।

10.यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥

जो भोजन विगड़ गया हो, बेस्वाद हो, सड़ गया हो, बासा हो, जूठा हो और गन्दा हो, वह तामसिक लोगों को प्रिय होता है। क्यों कि शरीर खाए हुए भोजन से ही बनता है, इसलिए भोजन की किस्म का बहुत महत्त्व है।[1]

तीन प्रकार के यज्ञ

11.अफलाकाड्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥

जो यज्ञ फल की इच्छा न रखने वाले लोगों द्वारा, जिनका यह विश्वास होता है कि यज्ञ करना उनका कर्त्तव्य है, शास्त्रीय नियमों के अनुसार किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है। गीता का यज्ञ वेदों के समारोहपूर्ण जैसा यज्ञ नहीं है। यह तो सामान्य तौर पर बलिदान का कार्य है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी सम्पत्ति और अपने कार्यों को सबके अन्दर विद्यमान एक ही जीवन की सेवा के लिए समर्पित कर देता है। इस प्रकार की बलिदान की भावना वाले लोग प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु तक को भी, चाहे वह अन्यायपूर्ण ही क्यों न हो, स्वीकार कर लेंगे, जिससे कि संसार उनके बलिदान द्वारा उन्नति कर सके। सावित्री यम से कहती है। कि अच्छे लोग अपने कष्ट-सहन और बलिदान द्वारा संसार को संभालते हैं। सन्तो भूमि तपसा धारयन्ति।अफलाकाड्क्षिभि:: जो किसी फल की आशा नहीं रखते। वे सही काम करते जाते हैं, परन्तु उसके परिणामों के प्रति निरपेक्ष रहते हैं। किसी भी सुकरात या गांधी को केवल इस बात का ध्यान रहता है कि वह ठीक काम कर रहा है या गलत काम; वह भले आदमी का अभिनय कर रहा है या बुरे आदमी का; और इस बात का ध्यान नहीं रहता कि वह जीवित रह सकेगा या उसे मरना पड़ेगा।

12.अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥

परन्तु हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), जो यज्ञ किसी फल की आशा से या प्रदर्शन के लिए किया जाता है, तू समझ ले कि राजसिक है।

13.विधिहीनमस्रष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥

जो यज्ञ नियम के अनुसार नहीं है, जिसमें कोई अन्न नहीं बांटा गया, जिसमें मन्त्र नहीं पढ़े गए और जिसमें दक्षिणा (पुराहित का शुल्क) नहीं दी गई, जो श्रद्धा से रहित है, उसे लोग तामसिक कहते हैं।अन्न का वितरण और शुल्क का देना दूसरों की सहायता करने के प्रतीक हैं, जिनके बिना सारा कर्म स्वार्थपूर्ण होगा।

तीन प्रकार का तप

14.देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्चते॥

देवताओं की, ब्रह्मणों की, गुरुओं की और विद्वानों की पूजा, पवित्रता, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर का तप कहलाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. छान्दोग्य उपनिषद् 7, 26, 2। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। यहाँ सत्त्व का अर्थ है अन्तःकरण। हम जिस भी प्रकार का भोजन करते हैं, उसका हमारी आत्मसंयम की शक्ति पर प्रभाव पड़ता है। तुलना कीजिए: विश्वामित्रपराशरप्रभृतयः ताताम्बुपर्णाशनाः, तेअपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टवैव मोहं गताः। शाल्यन्नं दधिदुग्धगोघृतयुतं ये भुज्जते मानवाः, तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत्, विन्ध्यस्तरेत् सागरम्॥

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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