भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-17
धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण जो भोजन जीवन, प्राणशक्ति, बल, स्वास्थ्य, आनन्द, और उल्लास को बढ़ाते हैं, जो मधुर, चिकनाई से युक्त, पोषक और रुचिकर होते हैं वे सात्त्विक लोगों को प्रिय होते हैं। 9.कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। जो भोजन तीखे, खट्टे, नमकीन, बहुत गरम, चरपरे, रूखे और जलन उत्पन्न करने वाले होते हैं, तो जो दुःख, शोक और रोग उत्पन्न करने हैं, वे राजसिक लोगों को पसन्द होते हैं। 10.यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत। जो भोजन विगड़ गया हो, बेस्वाद हो, सड़ गया हो, बासा हो, जूठा हो और गन्दा हो, वह तामसिक लोगों को प्रिय होता है। क्यों कि शरीर खाए हुए भोजन से ही बनता है, इसलिए भोजन की किस्म का बहुत महत्त्व है।[1] 11.अफलाकाड्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते। जो यज्ञ फल की इच्छा न रखने वाले लोगों द्वारा, जिनका यह विश्वास होता है कि यज्ञ करना उनका कर्त्तव्य है, शास्त्रीय नियमों के अनुसार किया जाता है, वह सात्त्विक कहलाता है। गीता का यज्ञ वेदों के समारोहपूर्ण जैसा यज्ञ नहीं है। यह तो सामान्य तौर पर बलिदान का कार्य है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी सम्पत्ति और अपने कार्यों को सबके अन्दर विद्यमान एक ही जीवन की सेवा के लिए समर्पित कर देता है। इस प्रकार की बलिदान की भावना वाले लोग प्रसन्नतापूर्वक मृत्यु तक को भी, चाहे वह अन्यायपूर्ण ही क्यों न हो, स्वीकार कर लेंगे, जिससे कि संसार उनके बलिदान द्वारा उन्नति कर सके। सावित्री यम से कहती है। कि अच्छे लोग अपने कष्ट-सहन और बलिदान द्वारा संसार को संभालते हैं। सन्तो भूमि तपसा धारयन्ति।अफलाकाड्क्षिभि:: जो किसी फल की आशा नहीं रखते। वे सही काम करते जाते हैं, परन्तु उसके परिणामों के प्रति निरपेक्ष रहते हैं। किसी भी सुकरात या गांधी को केवल इस बात का ध्यान रहता है कि वह ठीक काम कर रहा है या गलत काम; वह भले आदमी का अभिनय कर रहा है या बुरे आदमी का; और इस बात का ध्यान नहीं रहता कि वह जीवित रह सकेगा या उसे मरना पड़ेगा। 12.अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। परन्तु हे भरतों में श्रेष्ठ (अर्जुन), जो यज्ञ किसी फल की आशा से या प्रदर्शन के लिए किया जाता है, तू समझ ले कि राजसिक है। 13.विधिहीनमस्रष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्। जो यज्ञ नियम के अनुसार नहीं है, जिसमें कोई अन्न नहीं बांटा गया, जिसमें मन्त्र नहीं पढ़े गए और जिसमें दक्षिणा (पुराहित का शुल्क) नहीं दी गई, जो श्रद्धा से रहित है, उसे लोग तामसिक कहते हैं।अन्न का वितरण और शुल्क का देना दूसरों की सहायता करने के प्रतीक हैं, जिनके बिना सारा कर्म स्वार्थपूर्ण होगा। 14.देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। देवताओं की, ब्रह्मणों की, गुरुओं की और विद्वानों की पूजा, पवित्रता, ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और अहिंसा, यह शरीर का तप कहलाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छान्दोग्य उपनिषद् 7, 26, 2। आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। यहाँ सत्त्व का अर्थ है अन्तःकरण। हम जिस भी प्रकार का भोजन करते हैं, उसका हमारी आत्मसंयम की शक्ति पर प्रभाव पड़ता है। तुलना कीजिए: विश्वामित्रपराशरप्रभृतयः ताताम्बुपर्णाशनाः, तेअपि स्त्रीमुखपंकजं सुललितं दृष्टवैव मोहं गताः। शाल्यन्नं दधिदुग्धगोघृतयुतं ये भुज्जते मानवाः, तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेत्, विन्ध्यस्तरेत् सागरम्॥
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