भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 224

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-14
सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक सर्वोच्च ज्ञान

   
7.रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासगंसमुद्धवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसगेन देहिनम्॥

तू यह समझ ले कि आवेश (रजस्) आकर्षण के (अनुरागात्मक) ढंग का है, जो लोभ आसक्ति से उत्पन्न होता है। हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), यह शरीरी (आत्मा) को कर्म के प्रति आसक्ति द्वारा इस विचार से कर्म करवाता है कि ’मैं कर्ता हूं’। -आनन्दगिरि।

8.तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभ्ज्ञिस्तनिन्नबध्नाति भारत॥

तू यह समझ कि निष्क्रियता अज्ञान से उत्पन्न होती है और सब देहधारियों को मोह में (भ्रम में) डाल देती है। हे भारत (अर्जुन), यह लापरवाही, आलस्य और निद्रा (के गुणों के विकास) द्वारा बन्धन में डाल देती है।

9.सत्त्वं सुखे संजयति रजः कर्मणि भारत।
ज्ञानमावृत्य तु तमः प्रमादे संजयत्युत॥

हे भारत (अर्जुन), अच्छाई अर्थात् सत्य-गुण मनुष्य को आनन्द में और रजोगुण कर्म में लगाता है, किन्तु तमोगुण बुद्धि को ढककर प्रमाद की ओर लगाता है।

10.रजस्तमश्चाभिभूय सत्त्वं भवति भारत।
रजः सत्त्वं तमश्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा॥

हे भारत (अर्जुन), सत्त्व रजस् और तमस् को दबाकर उन पर विजयी होता है। रजस् सत्त्व और तमस् को दबाकर उन पर विजयी होता है और इसी प्रकार तमस् सत्त्व और रजस् को दबाकर उन पर विजयी होता है।तीनों गुण सब मानव-प्राणियों में विद्यमान रहते हैं, भले ही वे अलग-अलग मात्राओं में हों। कोई भी उनसे बचा हुआ नहीं है और प्रत्येक आत्मा में कोई-न-कोई एक गुण प्रधान होता है। मनुष्यों को उस गुण के आधार पर, जो उनमे प्रधान होता है, सात्त्विक, राजसिक अथवा तामस कहा जाता है। जब शरीरशास्त्र में शरीर की प्रकृतियों (ह्यूमर) का सिद्धान्त प्रचलित था, तब मनुष्यों का वर्गीकरण चार प्रकृतियों में से किसी एक की प्रधानता के कारण रक्त-प्रधान (सैंगुइन), पित्त-प्रधान (बिलियम), कफ-प्रधान (लिम्फैटिक) और चेता-प्रधान (नर्वस) के रूप में किया जाता था। हिन्दू वर्गीकरण में मानसिक विशेषताओं को ध्यान में रखा गया है। सात्त्विक प्रकृति अपना उद्देश्य प्रकाश और ज्ञान को बनाती है; राजसिक प्रकृति अशान्त और बाह्य वस्तुओं की लालसा से पूर्ण होती हैं। सात्त्विक स्वभाव की गतिविधियां स्वतऩ्त्र, शान्त और स्वार्थरहित होती हैं, जबकि राजसिक स्वभाव सदा सक्रिय रहना चाहता है और शान्त नहीं बैठ सकता और उसकी गतिविधियां स्वार्थ-लालसा से लिप्त रहती हैं। तामसिक प्रकृति निष्क्रिय और जड़ होती है। उसका मन अन्धकारपूर्ण और भ्रान्त होता है और उसका सारा जीवन निरन्तर अपने परिवेश के सम्मुख झुकते चले जाने का ही होता है।

11.सर्वद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्त्वमित्युत॥

जब ज्ञान का प्रकाश शरीर के सब द्वारों से बाहर फूटने लगता है, तब यह समझा जा सकता है कि सत्त्व-गुण बढ़ रहा है।सर्वद्वारेषु देहेअस्मिन्: इस शरीर के सब द्वारों में ज्ञान के प्रकाश की पूर्ण शारीरिक अभिव्यक्ति हो सकती है। चेतना का सत्य भौतिक तत्त्व में अभिव्यक्ति का विरोधी नहीं है। ब्रह्म को भौतिक स्तर पर भी अनुभव किया जा सकता है। मानवीय चेतना को दिव्य बनाना, भौतिक तत्त्व तक प्रकाश को पहुँचाना और सम्पूर्ण जीवन का रूपान्तर कर देना योग का लक्ष्य है।जब हमारे मन आलोकित हो उठते हैं और इन्द्रियां तीव्रतर हेा जाती हैं, तब सत्य-गुण प्रधान होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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