भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 22

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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5.गुरु कृष्ण

यहाँ गुरु शनैः-शनैः शिष्य को उस स्तर तक पहुँचने के लिए मार्ग दिखाता है, जिस पर वह स्वयं पहुँचा हुआ है, मम साधर्म्‍यम् (मेरे साथ समानता)। शिष्य अर्जुन उस संघर्ष करती हुई आत्मा का प्रतीक है, जिसने अभी तक उद्धार करने वाले सत्य को उपलब्ध नहीं किया है। वह अन्धकार, असत्य, सीमितता और मरणाशीलता की शक्तियों से, जो उच्चतर संसार के मार्ग को रोके हुए हैं, युद्ध कर रहा है। जब उसका सम्पूर्ण अस्तित्व किंकर्त्तव्‍यविमूढ़ हो जाता है, जब उसे यह पता नहीं चलता कि उचित कर्त्तव्‍य क्या है, तब वह अपने उच्चतर आत्म में, जिसका प्रतीक जगद्गुरु[1]संसार-भर को उपदेश देने वाला कृष्ण है, शरण लेता है और उससे ज्ञान देने की कृपा करने की प्रार्थना करता है। “मैं तेरा शिष्य हूँ: मेरी चेतना को प्रकाशित कर; मुझमें जो कुछ तमोमय है, उसे हटा दे, जो कुछ मैं गंवा चुका हूँ, अर्थात कर्म का एक स्पष्ट नियम, वह मुझे फिर प्रदान कर।” शरीर के रथ में सवार योद्धा अर्जुन है, परन्तु सारथी कृष्ण है और उसे ही इस यात्रा का मार्गदर्शन करना है।
प्रत्येक व्यक्ति शिष्य है, पूर्णता तक पहुँचने का महत्त्वाकांक्षी, भगवान का जिज्ञासुः और यदि वह सचाई से श्रद्धा के साथ अपनी खोज जारी रखता है, तो लक्ष्य भगवान ही मार्गदर्शक भगवान बन जाता है। जहाँ तक गीता की शिक्षाओं की प्रामाणिकता का प्रश्न है, इस बात का महत्त्व बहुत कम है कि इसका लेखक कोई ऐतिहासिक व्यक्ति है या मनुष्य के रूप में अवतरित स्वयं भगवान; क्योंकि आत्मा की वास्तविकताएं अब भी वहीं हैं, जो आज से हज़ारों साल पहले थीं और जाति एवं राष्ट्रीयता के अन्तर उन पर कोई प्रभाव नहीं डालते। असली वस्तु सत्य या सार्थकता है, और ऐतिहासिक तथ्य उसकी मूर्ति से अधिक कुछ भी नहीं है। [2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. तुलना कीजिएः
    अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाव्जनशलाकया।
    चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नमः॥ मैं उस दिव्य गुरु को नमस्कार करता हूँ, जो अज्ञान के रोग से अन्धे हो गए लोगों की आँखों को ज्ञान का अंजन डालकर खोल देता है।

  2. स्पिनोज़ा से तुलना कीजिएः “मुक्ति प्राप्त करने के लिए शरीरधारी के रूप में ईसा को जानना बिलकुल आवश्यक नहीं है; परन्तु तथा कथित परमात्मा के उस शाश्वत पुत्र के सम्बन्ध में (डी ऐटर्नो इल्लो डेई फ़िलियो), जो परमात्मा का सनातन ज्ञान है, जो सब वस्तुओं में और मुख्य रूप से मनुष्य के रूप में और सबसे अधिक विशेष रूप में ईसा में व्यक्त हुआ है, बात ठीक इससे उल्टी है; उसके ज्ञान के बिना कोई मनुष्य परम आनन्द की अवस्था तक नहीं पहुँच सकता; क्योंकि इसके सिवाय और कोई वस्तु उसे यह नहीं सिखा सकती कि क्या सत्य है और क्या मिथ्या, क्या अच्छा है और क्या बुरा।” इस प्रकार स्पिनोज़ा ऐतिहासिक ईसा और आदर्श ईसा में भेद करता है। ईसा की दिव्यता एक ऐसा धर्म-सिद्धान्त है, जो ईसाइयों की अन्तरात्मा में पनपा है। खीस्तशास्त्रीय सिद्धान्त एक ऐतिहासिक तथ्य की धर्मविज्ञानी व्याख्या है। इस सम्बन्ध में लोइसी का कथन हैः “ईसा का पुनरुज्जीवन उसके भौतिक जीवन का अन्तिम कार्य, मनुष्यों के बीच उसकी सेवा का अन्तिम कार्य नहीं था, अपितु धर्मप्रचारकों की श्रद्धा और ईसाई धर्म की आध्यात्मिक स्थापना का पहला कार्य था।” मॉड पीटरः लोइसी (1944), पृ. 65-66

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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