भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 217

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-13
शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है, और इन दोनों में अन्तर क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ

   
12.ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥

अब मैं तुझको यह बतलाऊंगा कि जानने योग्य (ज्ञेय) क्या है, जिसको जान लेने से शाश्वत जीवन प्राप्त हो जाता है। वह है परब्रह्म, जिसका कोई आदि नहीं है और जो कहा जाता है कि न तो सत् (अस्तित्वमान्) है और न असत् (जिसका अस्तित्व नहीं है)। अनादिमत् परम्: आदिरहित, अनादि भगवान्। - शंकराचार्य। अनादि मत्परम्: आदिरहित (अनादि) और मेरे द्वारा शासित।- रामानुज।वह नित्य है, जो अस्तित्व और अनस्तित्व, आदि और अन्त के सब अनुभवगम्य विरोधों से ऊपर है और यदि हम उसे प्राप्त कर लेते हैं, तो जन्म और मरण केवल बाहरी घटनाएं रह जाती हैं, जो आत्मा की नित्यता को स्पर्श नहीं कर पातीं।

क्षेत्र का जानने वाला, क्षेत्रज्ञ

13.सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥

उसके हाथ और पैर सब जगह हैं; उसकी आंखें, सिर और मुख सब ओर हैं; उसके कान सब दिशाओं में हैं; वह सबको आवृत्त करके संसार में निवास कर रहा है।अनुभव के सब विषयों के एक कर्ता के रूप में उसे सबको आवृत्त करने वाला और सब जगह हाथ-पैर-आंख-कान वाला बताया गया है। दर्शक प्रकाश के बिना कोई अनुभव हो ही नहीं सकता। क्योंकि भगवान् के दो पक्ष हैं, एक लोकातीतता और अनासक्ति का; दूसरा अनात्म (प्रकृति) के साथ प्रत्येक विशिष्ट संयोग में अन्तव्र्यापिता का; इसलिए उसे विरोधाभासोंकी एक श्रृंखला के रूप में वर्णित किया गया है। वह बाहर है और अन्दर भी, अचल है और चल भी, दूर है और पास भी, अविभक्त है और फिर भी विभक्त है। महाभारत में कहा गया है कि जब आत्मा प्रकृति के गुणों से संयुक्त रहता है, तब उसे क्षेत्रज्ञ कहा जाता है; ज बवह उन गुणों से मुक्त हो जाता है, तब वह परमात्मा कहलाता है। [1]

14.सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रयविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥

वह ऐसा प्रतीत होता है कि उसमें सब इन्द्रियों के गुण हैं और फिर भी वह किसी भी इन्द्रिय से रहित है; वह अनासक्त है; फिर भी सबको संभाले हुए है; वह गुणों से (प्रकृति के क्रमविधान से) रहित है और फिर भी उनका उपभोग कर रहा है।इस श्लोक में बताया गया है कि ईश्वर परिवर्तनशील है और अपरिवर्तनशील भी; वह सब कुछ है और एक है। वह सब-कुछ देखता है, परन्तु शारीरिक आंख (चर्मचक्षु) द्वारा नहीं; वह सब-कुछ सुनता है, परन्तु शारीरिक कान द्वारा नहीं; वह सब-कुछ जानता है, परन्तु सीमित मन द्वारा नहीं। श्वेताश्वतर उपनिषद् से तुलना कीजिए, 3, 19: वह आंख के बिना देखता है; वह कान के बिना सुनता है। ईश्वर की विशालता गुणों के आरोप (अध्यारोप) और निषेध (अपवाद) द्वारा स्पष्ट की गई है।

15.बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्यमत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्।

वह सब प्राणियों के बाहर है और अन्दर भी। वह अचल है और चलायमान भी। वह इतना सूक्ष्म है कि उसे जाना नहीं जा सकता। वह बहुत दूर है और फिर भी वह पास है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आत्मा क्षेत्रज्ञ इत्युक्तः संयुक्तः प्रकृतेर्गुणैः। तैरेव तु विनिर्मुक्तः परमात्मेत्युदाहृतः॥ - शान्तिपर्व 187, 24

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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