भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-11
भगवान् का दिव्य रूपान्तर अर्जुन 51.दृष्टवेदं मानुषं रूपं तब सौम्यं जनार्दन। अर्जुन ने कहा: हे जनार्दन (कृष्ण), तेरे इस सौम्य मानवीय रूप को देखकर मेरे होश-हवास ठीक हो गए हैं और मैं फिर अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ गया हूँ। 52.सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टावानसि यन्मम। तूने मेरे उस रूप को देखा है, जिसे देख पाना बहुत ही कठिन है। देवता भी इस रूप को देखने के लिए सदा लालायित रहते हैं। 53.नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया। तूने मुझको अभी जिस रूप में देखा है, उस रूप में मुझे वेदों द्वारा, तपस्या द्वारा, दान द्वारा या यज्ञों द्वारा भी नहीं देखा जा सकता।यह श्लोक 11, 48 की पुररुक्तिमात्र है। 54.भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन। परन्तु हे अर्जुन, अनन्य भक्ति द्वारा मुझको इस रूप में जाना जा सकता है और सचमुच देखा जा सकता है और हे शत्रुओं को सताने वाले (अर्जुन) मुझमें प्रवेश भी किया जा सकता है। शंकराचार्य ने आदर्श भक्त उसे बताया है, जो अपनी सब इन्द्रियों से केवल एक ही विषय (वस्तु), परमात्मा को अनुभव करती है।[1] वह अपनी सम्पूर्ण आत्मा और हृदय से परमात्मा की आराधना करता है।[2]सच्चे भक्तों के लिए साक्षात्कार या दिव्य-रूप का प्रयत्क्ष दर्शन सम्भव है। 55.सत्कर्मकृन्मत्परमो मद्धक्तः संगवर्जितः। हे पाण्डव (अर्जुन), जो व्यक्ति मेरे लिए काम करता है, जो मुझे अपना लक्ष्य मानता है, जो मेरी पूजा करता है, जो आसक्ति से रहित है, जो सब प्राणियों के प्रति निर्वैर (शत्रुता से रहित) है, वह मुझ तक पहुँच जाता है।यही भक्ति का सार है। देखिएः 12, 13। यह श्लोक गीता की सम्पूर्ण शिक्षा का सार है।[3] हमें अपनी आत्मा को परमात्मा के अभिमुख करके और संसार की सभी वस्तुओं के प्रति सब प्रकार की आसक्ति से रहित होकर और किसी भी प्राणि के प्रति शत्रुता न रखते हुए अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहना चाहिए।हमारे व्यवसाय और प्रकृति कैसे भी क्यों न हों- चाहे हम सृजनशील विचारक हों, चाहे चिन्तनशील कवि, या चाहे फिर सामान्य नर-नारी हों, जिन्हें कोई विशेष प्रतिभा प्राप्त नहीं हुई है- परन्तु यदि हमें ईश्वर के प्रति प्रेम की सबसे बड़ी देन प्राप्त है, तो हम परमात्मा के उपकरण, उसके प्रेम और उद्देश्य के साधन बन जाते हैं। जब जीवित आत्माओं का यह विस्त्रृत संसार परमात्मा के साथ समस्वर हो जाता है और केवल उसकी इच्छापूर्ण करने के लिए विद्यमान रहता है, तब मनुष्य को अपना लक्ष्य प्राप्त हो जाता है।दिव्य-रूप के दर्शन के भयावह अनुभव के पश्चात् ही गीता का अन्त नहीं हो जाता। लोकातीत आत्मा का, जो सबका मूल उद्गम है और फिर भी जो स्वयं सदा अविचल रहता है, महान् रहस्य दिखाई पड़ता है। भगवान् सीमित वस्तुओं की अन्तहीन परम्परा के लिए पृष्ठभूमि है। अर्जुन ने इस सत्य को देख लिया है, परन्तु उसे अपने सम्पूर्ण स्वभाव को ब्रह्म के स्वेच्छापूर्वक अंगीकार में रूपान्तरित करके इस सत्य को अपने जीवन में उतारना होगा। क्षणिक दर्शन, चाहे उसका प्रभाव कितना ही विशद् और स्थायी क्यों न हो, पूर्ण उपलब्धि नहीं है। स्थायी वास्तविकता के अनुसन्धान का, अन्तिम सत्य को खोज का अन्त केवल किसी मनोवेगात्मक सन्तुष्टि या अस्थायी आवेशात्मक अनुभव में नहीं हो सकता। इति ... विश्वरूपदर्शनयोगो नामैकादशोऽध्यायः। यह है ’विश्वरूप का दर्शन’ नामक ग्यारहवां अध्याय।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सर्वैरपि करणैः वासुदेवादन्यन्नोपलभ्यते यया सा अनन्या भक्तिः।
- ↑ मद्भक्तो मामेव सर्वप्रकारैः सर्वात्मना सर्वात्साहेन भजते। - शंकराचार्य।
- ↑ गीताशास्त्रस्य सारभूतोअर्थः।
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