भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
5.गुरु कृष्ण
हमें स्वतन्त्र इच्छाशक्ति प्रदान करने के बाद परमात्मा हमें छोड़कर अलग खड़ा नहीं हो जाता कि हम स्वेच्छापूर्वक अपना निर्माण या विनाश कर सकें। जब भी कभी स्वतन्त्रता के दुरुपयोग के फलस्वरूप अधर्म बढ़ जाता है और संसार की गाड़ी किसी लीक में फंस जाती है, तो संसार को उस लीक में से निकालने के लिए और किसी नये रास्ते पर उसे चला देने के लिए वह स्वयं जन्म लेता है। अपने प्रेम के कारण वह सृष्टि के कार्य को उच्चतर स्तर पर ले जाने के लिए बार-बार जन्म लेता है। महाभारत के एक श्लोक के अनुसार, विश्व की रक्षा के लिए सदा उद्यत भगवान के चार रूप हैं। उनमें एक पृथ्वी पर रहकर तप करता है; दूसरा ग़लतियां करने वाली मानवता के कार्यों पर सतर्क दृष्टि रखता है; तीसरा मनुष्य-जगत में कर्म में लगा रहता है और चौथा रूप एक हज़ार साल की नींद में सोया रहता है।[1]पूर्ण निष्क्रियता ही ब्रह्म के स्वभाव का एकमात्र पक्ष नहीं है। हिन्दू परम्परा में बताया गया है कि अवतार केवल मानवीय स्तर तक ही सीमित नहीं है। कष्ट और अपूर्णता की विद्यमानता का मूल मनुष्य के विद्रोही संकल्प में नहीं बताया गया, अपितु परमात्मा के सृजनात्मक प्रयोजन और वास्तविक संसार के मध्य विद्यमान विषमता में बताया गया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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चतुर्मूर्तिरहं शश्वल्लोकत्राणार्थमुद्यतः।
आत्मानं प्रविभज्येह लोकानां हितमाद्धे॥
एका मूर्तिस्तपश्चर्या कुरुते में भुवि स्थिता।
अपरा पश्यति जगत् कुर्वाणं साध्वसाधुनी॥
अपरा कुरुते कर्म मानुषं लोकमाश्रिता।
शते चतुर्थी त्वपरा निद्रां वर्षसहस्रिकीम्॥ -द्रोणपर्व, 29, 32-34
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