भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 193

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-10
परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है
परमात्मा की अन्तर्यामिता और लोकातीता

   
6.महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारों मनवस्तथा।
मद्धावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥

पुराने सात महर्षि और चार मनु भी मेरी प्रकृति के ही हैं और वे मेरे मन से उत्पन्न हुए हैं, और उनसे संसार के ये सब प्राणी उत्पन्न हुए हैं।ये वे शक्तियां हैं, जो संसार की अनेक प्रक्रियाओं के कार्यभार को संभालती हैं। पुरानी परम्परा के अनुसार यह माना जाता है कि मनु वह पहला मनुष्य है, जिससे प्राणियों की प्रत्येक नई जाति शुरू होती है।

7.एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।
सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥

जो कोई मेरी इस विभूति (यश या प्रकटन) को और शक्ति (स्थिर कर्म) को तत्त्व-रूप में जानता है, वह अविचलित योग द्वारा मेरे साथ संयुक्त हो जाता है, अर्थात् मिल जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।विभूति: महिमा [1]। जानने वाला ब्रह्म के साथ अपनी एकता को पहचान लेगा और संसार के कार्य में भाग लेगा, जो संसार कि ब्रह्म का ही एक रूप है। नियत रूप वाले ब्रह्म का ज्ञान अनियत रूप वाले ब्रह्म के ज्ञान तक पहुँचने का मार्ग है।[2]

ज्ञान और भक्ति

8.अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः॥

मैं सब वस्तुओं का उत्पत्तिस्थान हूं; मुझमें ही सारी (सृष्टि) चलती है। इस बात को जानते हुए ज्ञानी लोग विश्वासपूर्वक मेरी पूजा करते हैं।भाव: मन की सही दशा। - रामानुज।अब यहाँ गुरु ईश्वर के रूप में बोल रहा है। परमात्मा संसार का भौतिक और फलोत्पादक कारण है। साधक बदलते हुए रूपों के कारण भ्रम में नहीं पड़ता, अपितु इस बात को जानते हुए कि भगवान् सब रूपों का मूल है, वह भगवान् की ही पूजा करता है।

9.मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्य मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥

उनके विचार मुझमें स्थिर हो जाते हैं; उनके जीवन (पूर्णतया) मेरे प्रति समर्पित होते हैं; एक-दूसरे को ज्ञान देते हुए और सदा मेरे विषय में वार्तालाप करते हुए वे सन्तुष्ट रहते हैं और मुझमें ही आनन्द अनुभव करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विभूतिं विस्तारम्। शंकराचार्य की दृष्टि में ऐश्वर्य और रामानुज की दृष्टि में उचित भावना, उत्साह और श्रद्धा। शंकराचार्य पर टीका करते हुए आनन्दगिरि का कथन है, ’’विविधा भूतिर्भवनं वैभवं सर्वात्मकत्वम्।’’ यह प्रकट-रूप की महिमा है।
  2. सोपाधिकज्ञांन निरुपाधिकज्ञाने द्वारम्। - आनन्दगिरि।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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