भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 183

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-9
भगवान् अपनी सृष्टि से बड़ा है
सबसे बड़ा रहस्य

   
8.प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसाजामि पुनः पुनः।
भूतगाममिगं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥

अपनी प्रकृति को वश में रखते हुए मैं इन भूतों के समूह को बारम्बार उत्पन्न करता हूं, जो कि प्रकृति के वश में होने के कारण बिलकुल बेवस हैं। अव्यक्त प्रकृति जब अव्यक्त आत्मा द्वारा प्रकाशित हो जाती है, तब वह विभिन्न स्तरों वाले वस्तु -रूपात्मक विश्व को उत्पन्न करती है। विकास का क्रम और स्वभाव प्रकृति में निहित बीजों द्वारा निर्धारित होते हैं। दिव्य आत्मा को केवल इसे अपने वश में रखना -भर होता है। जीव कर्म के नियम के अधीन है और इसलिए विवश होकर विश्व के जीवन में शरीर धारण करने के लिए बाधित है। 5, 6 में यह कहा गया है कि ब्रह्म अपनी माया द्वारा (आत्ममायया) जन्म लेता है। मानवीय आत्माएं अपने कर्मों की प्रभु नहीं हैं। वे प्रकृति के वशवर्ती हैं, जबकि भगवान् प्रकृति का नियन्त्रण करता है और अज्ञान के कारण विवश-सा प्रकृति द्वारा चलाया नहीं जाता। दोनों ही मामलों में सृजन का साधन माया है। दिव्य शरीर धारण के मामले में यह योगमाया, आत्ममाया, प्रकृति है, जो भगवान् के प्रकाश और आनन्द से भरी रहती है और उसके नियन्त्रण के अधीन रहकर कार्य करती है। मानवीय शरीर धारण के मामले में यह अविद्या माया है। मानवीय आत्मा अज्ञान में फंसी रहती है और प्रकृति के अधीन रहने के कारण विवश होकर अपने कर्म से बंधी रहती है।

9.न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥

हे धन को जीतने वाले (अर्जुन), ये कर्म मुझे बन्धन में नहीं डालते, क्योंकि मैं इन कर्मों में अनासक्त और उदासीन -सा बैठा रहता हूँ। यद्यपि भगवान् सृष्टि और प्रलय का उनकी आत्मा बनकर और संदर्शक बनकर नियन्त्रण करता है, फिर भी वह उनमें फंसता नहीं है, क्योंकि वह विश्व की घटनाओं के सिलसिले से ऊपर है। क्योंकि यह सब उस प्रकृति का कार्य है, जो परमात्मा की है, इसलिए उसे इसके अन्दर व्याप्त माना जा सकता है और फिर भी अपने लोकोत्तर पक्ष की दृष्टि से वह वस्तुओं और घटनाओं की सांसारिक परम्परा से परे है। इस प्रकार परमात्मा विश्व की क्रीड़ा में अथक रूप से सक्रिय है और यह वह फिर भी विश्व से ऊपर और उसके नियम से मुक्त है। परमात्मा उस विश्व-चक्र से बंधा हुआ नहीं है, जिसे कि वह घुमा रहा है। अनगिनत व्यक्ति जन्म लेते हैं, बढ़ते हैं, प्रयत्न करते हैं और कष्ट उठाते हैं, मरते हैं और फिर जन्म लेते हैं, परन्तु परम आत्मा सदा स्वतन्त्र रहता है। वे अपने कर्मों का फल भुगतते हैं और अपने अतीत के कर्मों में बंधे रहते हैं, परन्तु वह सदा मुक्त रहता है। यह विकास फिर वापस लौटा लिया जाता है।

10.मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥

हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), मेरी देख-रेख में यह प्रकृति सब चराचर वस्तुओं को जन्म देती है और इसके द्वारा यह संसार-चक्र घूमता है। यहाँ कृष्ण को उस परमात्मा के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो सारे विश्व में व्याप्त है, जो सब अस्तित्वमान् वस्तुओं को संभाले हुए है और फिर भी लोकातीत और उदासीन है। आनन्दगिरि का कथन है कि हमें सृष्टि के प्रयोजन के प्रश्न को उठाना ही नहीं चाहिए। ’’हम यह नहीं कह सकते कि यह सृष्टि भगवान् के उपभोग के लिए है; क्योंकि भगवान् वस्तुतः किसी वस्तु का उपभोग नहीं करता। वह तो विशुद्ध चेतना है, केवल एक साक्षी। और उसके अलावा कोई अन्य उपभोक्ता है नहीं, क्यों कि उसके अलावा और कोई चेतन सत्ता ही नहीं है ... सृष्टि का उद्देश्य मोक्ष पाना भी नहीं हो सकता, क्योंकि यह मोक्ष की विरोधिनी है। इस प्रकार न तो यह प्रश्न ही और न इसका कोई उत्तर ही सम्भव है। और इस प्रश्न के लिए कोई अवसर भी नहीं है, क्योंकि सृष्टि परमात्मा की माया के कारण हुई है।’’ ऋग्वेद से तुलना कीजिए: ’’कौन प्रत्यक्ष रूप से इस बात को जान सकता है और कौन बता सकता है कि यह चित्र-विचित्र सृष्टि कहाँ से और क्यों उत्पन्न हुई?’’ [1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता, कुत इयं विसृष्टिः। 10, 129, 6 तैत्तिरीय ब्राह्मण 2, 8, 9

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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