भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है बहुत -से जन्मों के अन्त में ज्ञानी व्यक्ति- जो यह समझता है कि जो कुछ भी है, वह सब वासुदेव (ईश्वर) ही है- मुझे प्राप्त होता है। ऐसा महात्मा बहुत दुर्लभ होता है। बहुनां जन्मनाम् अन्ते: बहुत-से जन्मों के बाद। सत्य को हृदयंगम कर पाना अनेक युगों का कार्य है। जब तक कोई व्यक्ति अनुभव की गहराइयों को उनकी विविध जटिलताओं के साथ भलीभाँति न जान ले, तब तक यह आशा नहीं की जा सकती कि उसे सत्य का ज्ञान हो जाएगा। और इस सबमें काफी समय लगता है। परमात्मा पौधे को अपनी गति से बढ़ने देता है। प्राकृतिक शिशु को बनने में नौ महीने लगते हैं, फिर आध्यात्मिक शिशु को बनने में तो कहीं अधिक लम्बा समय लगेगा। प्रकृति का सम्पूर्ण रूपान्तरण एक लम्बी प्रक्रिया है। वासुदेवः सर्वम्: वासुदेव सब-कुछ है। वासुदेव जीवन का स्वामी है, जो हम सबमें निवास करता है।[1] परमात्मा अपनी दो प्रकृतियों के रूप में सब-कुछ है। इस वाक्यांश का अर्थ रामानुज ने यह लगाया है कि ’’वासुदेव मेरा सर्वस्व है।’’ इसका संकेत परमात्मा के उस अनश्वर गौरव की ओर है, जो विनीत और विश्वासी भक्त को अपने हृदय में अनुभव होता है। परमात्मा सब-कुछ है, जबकि हम कुछ भी नहीं हैं। अन्य सब वस्तुओं की भाँति मनुष्य का अस्तित्व परमात्मा के बिना नहीं रह सकता, जबकि परमात्मा का अस्तित्व सदा बना रहता है। हम विश्वासपूर्वक अपने-आप को परमात्मा के हाथों में यह विश्वास करते हुए सौंप देते हैं कि वह सब-कुछ है। यह परमात्मा के प्रति, जो सब-कुछ है और जो वस्तुतः है, विनम्रता की अनुभूति है।’’वासुदेव सबका कारण है।’’ - मध्व।विनय और प्रार्थना के अन्य स्वरूप निरर्थक नहीं हैं; उनका अपना फल है। 20.कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेअन्यदेवताः । परन्तु जिन लोगों के मन उनकी लालसाओं के कारण विकृत हो गए हैं, वे अपने-अपने स्वभाव के कारण विभिन्न विधि-विधानों को करते हुए अन्य देवताओं की शरण में जाते हैं। 21.यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति । जो कोई भक्त श्रद्धापूर्वक जिस भी रूप की पूजा करना चाहता है, मैं उस-उस रूप में उसकी श्रद्धा को अचल बना देता हूँ।परमेश्वर प्रत्येक भक्त की श्रद्धा को पुष्ट करता है और जो कोई जो फल चाहता है, उसे वह देता है। आत्मा अपने संघर्ष में जितनी ऊंची उठ जाती है, परमात्मा उससे मिलने के लिए ठीक उतना ही नीचे झुकता है। गौतमबुद्ध और शंकराचार्य जैसे अच्यधिक चिन्तनशील ऋषियों ने भी देवताओं में प्रचलित लोकप्रिय विश्वास का खण्डन नहीं किया। वे इस बात को समझते थे कि परमेश्वर को किसी प्रकार अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता और साथ ही यह भी कि वह जिन रूपों में प्रकट हो सकता है, उनकी संख्या असीम है। प्रत्येक सतह को उसका स्परूप उसकी गहराई से प्राप्त होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि छाया अपने मूल तत्त्व की प्रकृति को प्रतिविम्बित करती है। इसके अतिरिक्त सब प्रकार की पूजा ऊंचा उठाती है। चाहे हम किसी भी वस्तु पर श्रद्धा क्यों न करें, जब तक हमारी श्रद्धा गम्भीर है, वह प्रगति में सहायक होती है। 22.स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते । उस श्रद्धा से युक्त होकर वह उसकी आराधना करना चाहता है, और उससे ही वह अपने वांछित फल प्राप्त करता है, जबकि वस्तुतः वह फल मैं ही देता हूँ। सब रूप एक भगवान् के ही हैं; उनकी पूजा भगवान् की पूजा है; और सब फलों को देने वाला भगवान् ही है।[2] - श्रीधर।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वसति सर्वस्मिन्निति वासु; तस्य देवः।
- ↑ सर्वा अपि देवता ममैव मूर्तयः, तदाराधनमपि वस्तुतो ममाराधनरमेव, तत्ततफलदाताअपि चाअहमेव।
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