भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 169

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-7
ईश्वर और जगत
ईश्वर प्रकृति और आत्मा है

  
5.अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥

यह मेरी निम्नतर प्रकृति है। मेरी दूसरी और उच्चतर प्रकृति को भी जान ले, जो कि जीव-रूप है और हे महाबाहु (अर्जुन), जिसके द्वारा यह संसार धारण किया जाता है। सर्वोच्च भगवान् ईश्वर है, जो सारे विश्व का व्यक्तिक स्वामी है। जिसके अन्दर चेतन आत्मांए (क्षेत्रज्ञ) और अचेतन प्रकृति (क्षेत्र) हैं। ये दोनों उसके उच्चतर (परा) और निम्नतर (अपरा) पक्ष समझे जाते हैं। वह प्रत्येक विद्यमान वस्तु का जीवन और रूप है।[1] परमात्मा के सार्वभौम अस्तित्व में उसकी निम्नतर प्रकृति में अचेतना की सम्पूर्णता और उसकी उच्चतर प्रकृति में चेतना की सम्पूर्णता सम्मिलित है। शरीर, प्राण, इन्द्रियों, मन और बुद्धि के रूप में आत्मा का देह-धारण हमें एक अहंकार प्रदान करता है, जो भौतिक पृष्ठभूमि को अपनी गतिविधि के लिए प्रयोग में लाता है। प्रत्येक व्यक्ति के दो पहलू हैं, आत्मा और शरीर, क्षेत्रज्ञ और क्षेत्र। ये दोनों ईश्वर की प्रकृतियां हैं, जो इन दोनों से ऊपर है। [2] ओल्ड टैस्टामेंट (पुरानी बाइबिल) में बताया गया है कि सृष्टि शून्य में से उत्पन्न हुई। प्लेटो और अरस्तू ने एक आदिकालीन भौतिक तत्त्व की कल्पना की है, जिसे परमात्मा रूप प्रदान करता है। परमात्मा स्पष्टा न होकर कारीगर या निर्माता है, क्योंकि उस आदिकालीन भौतिक तत्त्व को भी नित्य और अनुत्पन्न माना गया है और परमात्मा की इच्छा तो केवल उसके रूप धारण करने का कारण बनती है। ईसाई विचारकों के मतानुसार परमात्मा किसी पहले से विद्यमान भौतिक तत्त्व के द्वारा सृष्टि का सृजन नहीं करता, अपितु वह शून्य में से उसे रच डालता है। भौतिक तत्त्व और उसका बाह्य रूप, दोनों ही परमात्मा से निकले हैं। इससे मिलता-जुलता दृष्टिकोण इस श्लोक में प्रस्तुत किया गया है। जीवन ईश्वर की केवल आंशिक अभिव्यक्ति है।[3] ईश्वर की अखण्ड अविभक्त वास्तविकता आत्माओं की विविधता में विभक्त प्रतीत होने लगती है।[4]एकता सत्य है और विविधता उसी की एक अभिव्यक्ति है और इस प्रकार वह एक निम्नतर सत्य है, किन्तु वह भी भ्रम नहीं है।

6.एतद्योनीति भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥

इस बात को समझ ले कि सब प्राणियों का जन्म इसी से हुआ है। मैं इस सारे संसार का मूल (जनक) हूँ और मैं ही इसका विनाश भी हूँ। यह सारा संसार अपने सब अस्तित्वमान पदार्थों के साथ ईश्वर से उत्पन्न हुआ है और प्रलय के समय उसी में लीन हो जाता है। तुलना कीजिए, तैत्तिरीय उपनिषद [5]। परमात्मा इस विश्व को अपने अन्दर रखता है, वह इसे अपने में से अर्थात् स्वयं अपनी प्रकृति में से इसे बाहर निकालना है और फिर वापस अपने अन्दर समेट लेता है।

7.मत्तः परतरं नान्यत्किच्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥

हे धन को जीतने वाले (अर्जुन), ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जो मुझसे उच्चतर हो। जो कुछ भी इस संसार में है, वह सब मुझमें उसी प्रकार पिरोया हुआ है जैसे कि मणियां धागे में पिरोई रहती हैं। ईश्वर से उच्चतर और कोई मूल तत्त्व नहीं है। वह ईश्वर की सब वस्तुओं को बनाता है और स्वयं सब-कुछ है। संसार की सत्ताएं परमात्मा द्वारा उसी प्रकार परस्पर मिलाकर रखी जाती हैं, जैसे कि धागा मणियों को आपस में मिलाकर रखता है।

8.रसोऽहप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ॥

हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), मैं जलों में स्वाद-रूप हूं; चन्द्रमा और सूर्य में मैं प्रकाश हूं; सब वेदों में मैं ’ओउम्’ शब्द हूं; आकाश में मैं शब्द हूँ और पुरुषों में पौरुष हूँ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. विशुद्धां प्रकृति ममात्मभूतां विद्धि मे परां प्रकृष्टां जीवभूतां क्षेत्रज्ञलक्षणां प्राणधारणनिमित्तभूताम्। - शंकराचार्य। विशुद्धां प्रकृति ममात्मभूतां विद्धि मे परां प्रकृष्टां जीवभूतां क्षेत्रज्ञलक्षणां प्राणधारणनिमित्तभूताम्। - शंकराचार्य।
  2. भागवत से तुलना कीजिए: हे क्षेत्रज्ञ (आत्मा), तुझे नमस्कार है। तू जो सबका अध्यक्ष है, साक्षी है, महान् आत्मा है और जो सब आत्माओं तथा सदा उत्पादनशील प्रकृति का भी मूल है। क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे। पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥ -8, 3, 13
  3. 15, 7
  4. 13, 16
  5. तुलना कीजिए: 14, 3; मम योनिर्महद्ब्रह्म। साथ ही देखिए, मुण्डकोपनिषद्, 1, 1, 6, और 3, 1, 3। अक्षरं भूतयोनिम् ’ ’ ’ पुरुषं भूतयोनिम्। ब्रह्मसूत्र: योनिश्च गीयते। 1, 4, 27

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परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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