भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-6
सच्चा योग जो व्यक्ति मित्रों, साथियों और शत्रुओं में, तटस्थों और निष्पक्षों में, द्वेष रखने वालों और सम्बन्धियों में, सन्तों में और पापियों में एक-सा भाव रहता है, उसे अधिक अच्छा माना जाता है। एक पाठ-भेद है-’विशिष्यते’ के स्थान पर ’विमुच्यते’। गीता पर शंकराचार्य की टीका। इस योग को कैसे प्राप्त किया जाए?शरीर और मन की सतत जागरूकता आवश्यक है 10.योगी युज्जीत सततमात्मांन रहसि स्थितः । योगी को चाहिए कि वह एकान्त में अकेला बैठकर अपने-आप को वश में रखते हुए, सब इच्छाओं से मुक्त होकर और किसी भी परिग्रह (धन-सम्पत्ति या साज-सामान) की कामना न करते हुए अपने मन को (परमात्मा में) एकाग्र करे। यहाँ पर गुरु ने पतंजलि के योगसूत्र की पद्धति पर मन को अनुशासन में रखने की विधि का विकास किया है। इसका मुख्य प्रयोजन हमारी चेतना को उसकी साधारण जागृतावस्था से उच्चतर स्तर तक इतना उठाते जाना है कि वह भगवान् के साथ संयुक्त हो जाए। साधारणतया मानवीय मन बहिर्मुख होता है।जीवन के यान्त्रिक और भौतिक पक्षों में तल्लीन रहने के फलस्वरूप चेतना एक विसन्तुलित दशा में पहुँच जाती है। योग चेतना के आन्तरिक संसार की खोज का प्रयत्न करता है और चेतन तथा अवचेतन को संगठित करने में सहायता करता है। हमें अपने मन को ऐन्द्रिय इच्छाओं से शून्य कर देना चाहिए, बाह्म विषयों से अपने ध्यान को हटा लेना चाहिए और उसे उपासना के लक्ष्य में लगा देना चाहिए।[1]देखिए भगवद्गीता, 18, 72 जहाँ गुरु ने अर्जुन से पूछा है कि क्या उसने उसके उपदेश को एकाग्रचित्त होकर सुना है; एकाग्रेण चेतसा। क्यों कि इसका उद्देश्य दृष्टि की पवित्रता प्राप्त करना है, इसलिए इसके नित्ति मन की सूक्ष्यमता और स्थिरता की आवश्यकता होती है। हमारा वर्तमान विस्तार ही हमारे अस्तित्व की चरमसीमा नहीं है। अपने मन की सब ऊर्जाओं को जगाकर और उन्हें एकाग्र करके हम सम्बन्ध के स्तर को अनुभवगम्य से वास्तविक तक, अवलोकन से दर्शन तक ऊपर उठाते हैं और आत्मा को अपने सम्पूर्ण अस्तित्व पर अधिकार कर लेने देते हैं। बुक आफ प्रावर्ब्जह (कहावतों की पुस्तक) में यह कहा गया है कि ’’मनुष्य की आात्मा परमात्मा की मशाल है।’’ मनुष्य के आन्तरिकतम अस्तित्व में ऐसी कोई वस्तु है, जिसे परमात्मा दीपशिखा के रूप में जला सकता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह वह स्थिति है जिसे बाएहमी ने ’कल्पना के चक्र को रोक देना और आत्मचिन्तन से विरत हो जाना’ कहा है।
- ↑ मैथ्यू 6, 6
- ↑ .वड्र्सवर्थ के इस वक्तव्य से तुलना कीजिए कि ’’कविता का जन्म प्रशान्तता में अनुस्मरण किए गए मनोवगों से होता है।’’ रिल्के ने अपने ’लैटर्स टू ए यंग पोइट’ में कहा है: ’’मैं तुम्हें इसके सिवाय कोई और सलाह नहीं दे सकता कि तुम अपने अन्दर ही वापस लौट आओ और उन गहराइयों की छानबीन करो, जिनसे तुम्हारा जीवन उद्भुत हुआ है।’’
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