भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 147

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-5
सच्चा संन्यास

  
14.न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजाति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥

सर्वोच्च प्रभु आत्मा न तो लोगों को कर्ता बनाती है, न वह कर्म करती है; न वह कर्मों का उनके फलों के साथ संयोग ही करती है। यह तो इन वस्तुओं का स्वभाव ही है, जो इस सबमें प्रवृत्त होता है। प्रभु ज्ञाता की सर्वोच्च आत्मा, वास्तविक आत्मा है, जो सब अस्तित्व वाली वस्तुओं के साथ एकाकार है।

15.नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥

सर्वव्यापी आत्मा न तो किसी का पाप ग्रहण करती है और न किसी का पुण्य। ज्ञान अज्ञान द्वारा सब ओर से ढका हुआ है, इसी कारण प्राणी किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं।विभुः सर्वव्यापी। प्रत्येक आत्मा एक पृथक् शाश्वत और अपरिवर्तनशील इकाई नहीं है। ’विभुः’ का संकेत या तो ज्ञानी मनुष्य की आत्मा की ओर या परम आत्मा की ओर है, जो अद्वैत वेदान्त में एकरूप ही हैं।अज्ञानेनः अज्ञान द्वारा। अज्ञान के कारण ही हमें यह विश्वास होने लगता है कि ये विवधि रूप वाली वस्तुएं अन्तिम हैं।

ज्ञानम्: ज्ञान। ज्ञान ही सब पृथकताओं का एकतात्र आधार है।[1]

16.ज्ञानेन. तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ॥

किन्तु जिन लोगों का अज्ञान ज्ञान द्वारा नष्ट हो जाता है, उनके लिए ज्ञान सूर्य की भाँति परम आत्मा को प्रकाशित कर देता है।तत्परम्: परमार्थतत्त्वम्: परम वास्तवकिता। - शंकराचार्य।अहंकार से ऊपर विद्यमान आत्मा पाप या पुण्य से, सुख या दुःख से अछूती रहती है। वह सबका साक्षी है।

17.तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्पषाः ॥

उसका विचार करते हुए, अपनी सम्पूर्ण चेतन सत्ता को उसकी ओर प्रेरित करते हुए, उसे अपना सम्पूर्ण उद्देश्य बनाते हुए, उसे अपनी भक्ति का एकमात्र लक्ष्य बनाते हुए वे उस दशा तक पहुँच जाते हैं, जहाँ से वापस नहीं लौटना होता; और उनके पाप ज्ञान द्वारा धुलकर साफ हो जाते हैं।कर्मों द्वारा निर्धारित मिथ्या अहंकार लुप्त हो जाता है और जीव परम आत्मा के साथ अपनी एकरूपता को अनुभव कर लेता है, और उसी केन्द्र से कार्य करने लगता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अज्ञानेनावरणविक्षेपशक्तिमता मायाख्येनानृतेन तमसा ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भ्रमाधिष्ठानभंत नित्यं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरूपम् अद्वितीयं परमार्थसत्यम्। - मधुसूदन ।अज्ञानेनावरणविक्षेपशक्तिमता मायाख्येनानृतेन तमसा ज्ञानं जीवेश्वरजगद्भ्रमाधिष्ठानभंत नित्यं स्वप्रकाशं सच्चिदानन्दरूपम् अद्वितीयं परमार्थसत्यम्। - मधुसूदन ।

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अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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