भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 136

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग

  
21.निराशीर्यतचित्तात्मा त्यचक्तसर्वपरिग्रहः ।
शरीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥

कोई इच्छा न रखते हुए, अपने चित्त और आत्मा को वश में रखते हुए सब प्रकार की सम्पदाओं को त्यागकर जो केवल शरीर द्वारा कर्म करता है, उसे कोई दोष नहीं लगता। शंकराचार्य और मधुसूदन के मतानुसार, ’शरीर कर्म’ वह कर्म है, जो शरीर को बनाए रखने के लिए अपेक्षित है। वेदान्तदेशिका के मतानुसार यह ’केवल शरीर द्वारा किया गया कर्म’ है।पुण्य या पाप का सम्बन्ध बाह्य कार्य से नहीं है। जब कोई मनुष्य अपनी वासनाओं और आत्म-इच्छा से मुक्त हो जाता है, तब वह भगवान् की इच्छा को प्रतिविम्बित करने वाला दर्पण बन जाता है। मानवीय आत्मा दैवीय शक्ति का शुद्ध माध्यम बन जाती है।

22.यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः ।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

जो मनुष्य यों ही संयोगवश प्राप्त वस्तु से सन्तुष्ट रहता है, जो (सुख और दुःख के) द्वन्द्वों से परे पहुँच चुका है, जो ईर्ष्या से मुक्त है, जो सिद्धि और असिद्धि (सफलता और विफलता) में समान रहता है, वह कर्म करता हुआ भी उसके बन्धन मे नहीं पड़ता। कर्म अपने-आप में बांधने वाली वस्तु नहीं है। यदि यह बांधता हो, तो हम परमात्मा और संसार के एक बड़े द्वैत में फंस जाते हैं और संसार एक ब्रह्माण्डीय भूल माना जाता है। यह ब्रह्माण्ड भगवान् का ही एक प्रकट-रूप है और बांधने वाली वस्तु कर्म नहीं, अपितु कर्म के प्रति स्वार्थ की मनोवृत्ति है, जो अज्ञान से उत्पन्न होती है और जिसके कारण हम यह समझने लगते हैं कि हम इतने सारे अलग-अलग व्यक्ति हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट रुचियां और अरुचियां है। अब गुरु यह बताना चाहता है कि कर्ता, कर्म और क्रिया, ये सब एक ही भगवान् के विभिन्न प्रकट-रूप हैं और भगवान् को यज्ञ के रूप में समर्पित किया गया कर्म बन्धनकारी नहीं होता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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