भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 133

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग ज्ञानयोग की परम्परा

  
15.एवं ज्ञात्वा कृतं पूर्वैरपि मुमुक्षुभि ।
कुरु कर्मैव तस्मांत्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् ॥

पुराने समय के लोगों ने, जो मोक्ष पाने के अभिलाषी थे, यह जानते हुए भी कर्म किया था। इसलिए जैसे प्राचीन काल में पुराने लोगों ने किया था, उसी प्रकार तू भी कार्य कर। अज्ञानी लोग आत्मशुद्धि के लिए कर्म करते हैं और ज्ञानी लोग लोकसंग्रह के लिए कर्म करते हैं। जिस प्रकार पुराने लोगों ने परम्परा के द्वारा निर्दिष्ट कर्म को किया था, उसी प्रकार अर्जुन से भी योद्धा के रूप में उसका कर्त्तव्य पूरा करने के लिए कहा गया है। तुलना कीजिएः ’’हे संसार के स्वामी, सर्वोच्च आत्मा, मंगलकारी परमात्मा, मैं केवल तुम्हारे आदेश से प्राणियों के हित के लिए और तुम्हारा प्रिय करने के लिए इन जीवन-यात्रा को चलाऊंगा।’’[1]

कर्म और अकर्म

16.किं कर्म किमकर्मेति कवयोअप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेशुभात ॥

क्या कर्म है और क्या अकर्म है, उस विषय में तो बड़े-बड़े ज्ञानी भी चकरा गए हैं। मैं तुझे बताऊंगा कि कर्म क्या है। उसे जानकर तू सब दोषों से मुक्त हो जाएगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. लोकेश चैतन्यमयाधिदेव, मागंल्यविष्णो भवदाज्ञयैव।हिताय लोकस्य तब प्रियार्थ संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये॥

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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