भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 130

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-4
ज्ञानमार्ग

  
10.वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूरा मद्धावमागताः ॥

राग, भय और क्रोध से मुक्त होकर, मुझमें लीन होकर और मेरी शरण में आकर ज्ञान की तपस्या द्वारा पवित्र हुए बहुत-से लोगों ने मेरी ही स्थिति को प्राप्त कर लिया है; अर्थात् जो कुछ मैं हूँ, वही वे बन गए हैं। मद्भावम्: उस आधिदैविक अस्तित्व को, जो कि मेरा है। अवतार का उद्देश्य केवल विश्व-व्यवस्था को बनाए रखना ही नहीं है, अपितु मानव-प्रणियों को उनकी अपनी प्रकृति में पूर्ण बनने में उनकी सहायता करना भी है। मुक्त आत्मा पृथ्वी पर असीम की एक जीती-जागती प्रतिमा बन जाती है। परमात्मा के मानव-रूप में अवतरण का एक प्रयोजन यह भी है। कि मनुष्य ऊपर उठकर परमात्मा तक पहुँच सके। धर्म का उद्देश्य मनुष्य की यह पूर्णता है और अवतार सामान्यतया इस बात की घोषणा करता है कि वह स्वयं ही सत्य, मार्ग और जीवन है।

11.ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

जो लोग जिस प्रकार मेरे पास आते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार अपनाता हूँ। हे अर्जुन, मनुष्य सब ओर मेरे मार्ग का अनुगमन करते हैं। मम वत्र्मा: मेरा मार्ग; मेरी पूजा का मार्ग।[1]सर्वशः सब ओर; एक और पाठ है, सर्वप्रकारै:: सब प्रकार से। इस श्लोक में गीता के धर्म की विस्त्रृत उदारता स्पष्ट दिखाई पड़ती है। परमात्मा प्रत्येक साधक के कृपापूर्वक मिलता है और प्रत्येक को उसकी हार्दिक इच्छा के अनुसार फल प्रदान करता है। वह किसी की भी आशा को तोड़ता नहीं, अपितु सब आशाओं को उनकी अपनी-अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ने में सहायता देता है। जो लोग वैदिक देवताओं, की यज्ञ द्वारा पूजा करते हैं, और उनके बदले कुछ फल की आशा रखते हैं, उन्हें भी परमात्मा की दया से वह सब प्राप्त हो जाता है, जिसे पाने के लिए वे प्रयत्नशील होते हैं। जिन लोगों को सत्य का दर्शन प्राप्त हो जाता है, वे उसे प्रतीकों द्वारा उन साधारण लोगों तक पहुँचा देते हैं, जो उसे उसकी नग्न तीव्रता में देख नहीं सकते। अरूप तक पहुँचने के लिए नाम और रूप [2] में अपनाया जा सकता है।
हिन्दू विचारकों को मार्गों की उस विविधता का ज्ञान है, जिस पर चलकर हम भगवान् तक पहुँच सकते हैं, जो सब रूपों की सम्भाव्यता है। उन्हें मालूम है कि युक्तिसंगत तर्क के किसी भी प्रयत्न द्वारा हमारे सम्मुख परम वास्तविकता का सच्चा चित्र खड़ा कर पाना असम्भव है। परमार्थ की दृष्टि से किसी भी प्रकट रूप को परम सत्य नहीं माना जा सकता, जबकि व्यवहार की दृष्टि से प्रत्येक रूप में कुछ-न-कुछ प्रामाणिकता विद्यमान है। जिन रूपों की हम पूजा करते हैं, वे हमारे गम्भीरतम पूजा का लक्ष्य आत्मा के ध्यान को दृढ़ता से जकड़े रहता है, तब तक वह हमारे मन और हृदय में प्रवेश करता रहता है और उन्हें गढ़ता रहता है। रूप का महत्त्व उस कोटि द्वारा आंका जाना चाहिए, जिस कोटि में वह अन्तिम (परम) सार्थकता को अभिव्यक्त करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मम भजनमार्गम्। -श्रीधर।
  2. यथाभिमतध्यान।

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भगवद्गीता -राधाकृष्णन
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ संख्या
परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
14. सब वस्तुओं और प्राणियों का रहस्यमय जनक 222
15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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