भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-3
कर्मयोग या कार्य की पद्धति हे भारत (अर्जुन), जिस प्रकार अविद्वान व्यक्ति आसक्त होकर कर्म करते हैं, उसी प्रकार विद्वान् व्यक्ति अनासक्त होकर लोकसंग्रह (संसार की व्यवस्था को बनाए रखने) की इच्छा से कर्म करते हैं। यद्यपि जो आत्मा प्रकाष में पहुँच कर केन्द्रित हो गई है, उसके वास्ते अपने लिए करने को कुछ बाकी नहीं है,फिर भी वह अपने-आप को विश्व के कार्य में उसी प्रकार लगा देती है,जैसे भगवान् अपने-आप को लगाए हुए है। उसकी गतिविधि भगवान् के प्रकाश और आनन्द से स्फुरणा प्राप्त करती है। 26.न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसगिनाम् । ज्ञानी व्यक्ति को चाहिए कि वह कर्म में आसक्त अज्ञानी व्यक्तियों के मन को विचलित न करे। योग की भावना से कर्म करने वाले मनुष्य को चाहिए कि वह दूसरों को (भी) कर्म में लगाए। न बुद्धिभेदंजनयेत्: वह लोगों के मन को विचलित न करे। किसी भी प्रकार की धार्मिक आस्था को दुर्बल मत करो। कर्त्तव्य, बलिदान और प्रेम के तत्त्व में सब धर्मां के आधार प्रतीत होते हैं। हो सकता है कि धर्म के निम्नतर रूपों में वे कठिनाई से पहचाने जाएं और कुछ ऐसे प्रतीकों के आसपास केन्द्रित हों जो उन सिद्धान्तों के सहायक हैं, जिनका कि वे समर्थन करते हैं। ये प्रतीक उन लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं,जो उनमें विश्वास रखते हैं। वे प्रतीक केवल तब असह्य हो उठते हैं, जबकि उन्हें उन लोगों पर थोपा जाने लगे, जो उन्हें स्वीकार नहीं कर सकते और तब, जबकि उन्हें मानवीय विचार का परम और अन्तिम रूप बताया गया जाने लगे। धर्मविज्ञानी सिद्धान्त का परमत्व का रूप धार्मिक सत्य के रहस्यपूर्ण रूप के साथ विसंगत (जो साथ न रह सके) है। श्रद्धा विश्वास की अपेक्षा अधिक व्यापक है। फिर, यदि हमें यह पता हो कि कौन-सी वस्तु अधिक अच्छी है और फिर भी हम उसे न अपनाएं, तो हम एक गलत काम कर रहे होंगे।जब अशिक्षित लोग प्रकृति की शक्तियों के सामने विनत होते हैं, तब हम जानते हैं कि वे गलत वस्तुओं के सामने झुक रहे हैं और वे परमात्मा की विशालतर एकता को देख पाने में असमर्थ हैं। फिर भी वे एक ऐसी वस्तु के सम्मुख झुक रहे होते हैं, जो उनका अपना क्षुद्र आत्म नहीं है। अपरिष्कृत दृष्टिकोणों में भी कुछ ऐसी वस्तु विद्यमान है, जिसके द्वारा उन लोगों को सही जीवन बिताने में सहायता मिलती है, जो सही जीवन बिताना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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