भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 103

भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास

  
62.ध्यायतो विषयान्पुसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

जब कोई मनुष्य अपने मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान करने लगता है, तो उसके मन में उनके प्रति अनुराग पैदा हो जाता है। अनुराग से इच्छा उत्पन्न होती है और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है। काम: इच्छा। इच्छाएं उतनी ही अदम्य सिद्ध हो सकती हैं, जितनी कि बड़ी से बड़ी शक्तिशाली बाह्य शक्तियाँ। वे हमें ऊपर उठाकर यशस्वी बना सकती हैं या फिर कलंक के गर्त में भी धकेल सकती हैं।

63.क्रोधाद्धवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥

क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है। मूढ़ता से स्मृति नष्ट हो जाती है। स्मृति के नष्ट होने से बुद्धि का नाश हो जाता है; और बुद्धि के नाश से व्यक्ति ही नष्ट हो जाता है। बुद्धिनाश: बुद्धि का नष्ट हो जाना। यह अच्छे और बुरे के बीच भेद कर पाने की असमर्थता है। जब आत्मा वासना के वशीभूत हो जाती है, तब उसकी स्मृति लुप्त हो जाती है; उसकी बुद्धि मलिन हो जाती है और मनुष्य नष्ट हो जाता है। जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह संसार से बलपूर्वक पृथक् हो जाना या ऐन्द्रिय जीवन का विनाश नहीं है, अपितु अन्तर्मुखी प्रत्यावर्तन है। इन्द्रियों से घृणा करना उतना ही गलत है, जितना उनसे प्रेम करना। इन्द्रियों के घोड़ों को रथ में से खोलकर अलग नहीं कर देना है, अपितु मन की रासों द्वारा उन्हें वश में रखना है।

64.रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैष्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

परन्तु अनुशासित मन वाला मनुष्य, जो अपनी इन्द्रियों को वश में रखे हुए, राग और द्वेश (लगाव और विरक्ति) से मुक्त रहकर इन्द्रियों के विषयों में विचरण करता है, वह आत्मा की पवित्रता को प्राप्त कर लेता है। देखिए,5,8। स्थित-प्रज्ञ का कोई स्वार्थपूर्ण प्रयोजन या व्यक्तिगत आकांक्षा नहीं होती। वह बाह्य वस्तुओं के स्पर्शां से क्षुब्ध नहीं होता। जो भी कुछ घटित होता है, उसे वह बिना आसक्ति या विरक्ति के स्वीकार कर लेता है। वह किसी वस्तु की स्पृहा नहीं करता। वह किसी के प्रति ईर्ष्‍यालु नहीं होता। उसकी कोई लालसा नहीं होती और कोई मांग ही होती है।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीचे दिये गए ऋषियों के वर्णन से तुलना कीजिएः ऊध्‍वरेतास्तपस्युग्रो नियताशी च संयमी। शापानुग्रहयोः शक्तः सत्यसन्धो भवेदृषि ॥ तपोनिर्धूतपाप्मानः यथातथ्याभिधायिनः। वेदवेदागड़तत्त्वज्ञा ऋषयः परिकीर्तिताः ॥

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परिचय 1
1. अर्जुन की दुविधा और विषाद 63
2. सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास 79
3. कर्मयोग या कार्य की पद्धति 107
4. ज्ञानमार्ग 124
5. सच्चा संन्यास 143
6. सच्चा योग 152
7. ईश्वर और जगत 168
8. विश्व के विकास का क्रम 176
9. भगवान अपनी सृष्टि से बड़ा है 181
10. परमात्मा सबका मूल है; उसे जान लेना सब-कुछ जान लेना है 192
11. भगवान का दिव्य रूपान्तर 200
12. व्यक्तिक भगवान की पूजा परब्रह्म की उपासना की अपेक्षा 211
13. शरीर क्षेत्र है, आत्मा क्षेत्रज्ञ है; और इन दोनों में अन्तर 215
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15. जीवन का वृक्ष 227
16. दैवीय और आसुरीय मन का स्वभाव 231
17. धार्मिक तत्त्व पर लागू किए गए तीनों गुण 235
18. निष्कर्ष 239
19. अंतिम पृष्ठ 254

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