भगवद्गीता -डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन
अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास इन्द्रियों के विषय उस शरीरधारिणी आत्मा से विमुख हो जाते हैं, जो उनका आनन्द लेने से दूर रहती है। परन्तु उनके प्रति रस (लालसा) फिर भी बना रहता है। जब भगवान् का दर्शन हो जाता है, तब वह रस भी जाता रहता है। यहाँ पर लेखक बाह्य संयम और आन्तरिक त्याग में अन्तर स्पष्ट कर रहा है। हो सकता है कि हम वस्तुओं को त्याग दें; परन्तु उसके बाद भी उनके लिए इच्छा बनी रहे। जब भगवान् का दर्शन होता है, तब यह इच्छा भी समाप्त हो जाती है।[1]संयम शरीर और मन दोनों पर होना चाहिए। शरीर के अत्याचार से मुक्त हो जाना ही पर्याप्त नहीं; हमें इच्छाओं के अत्याचारों से भी मुक्त होना होगा। 60.यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । हे कुन्ती के पुत्र (अर्जुन), भले ही मनुष्य विवेकशील हो और वह सदा (पूर्णता के लिए) प्रयत्न करता रहे, फिर भी उसकी प्रबल इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक विचलित कर ही देती हैं। 61.तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः । उन सब (इन्द्रियों) को वश में करके, उसे मुझमें ध्यान लगा, योग में स्थिर रहना चाहिए; क्योंकि जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक स्थित रहती है।मत्परः एक अन्य पाठ है ’तत्परः’। आत्म-अनुशासन बुद्धि का विषय नहीं है, यह तो संकल्प और भावनाओं का विषय है। सर्वोच्च का दर्शन होन पर आत्म-अनुशासन सरल हो जाता है। देखिए 12,5। मूलतः योग ईश्वरवादी था। साथ ही तुलना कीजिए, योगसूत्र, 1,24। क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कालिदास से तुलना कीजिएः ’’जिनके चित्त विकार का कारण विद्यमान होन पर भी विचलित नहीं होते, वे ही सच्चे वीर हैं।’’ विकाररहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।- कुमारसम्भव, 1, 59
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